Santan Saptami Vrat Katha 2022: हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को संतान सप्तमी का व्रत रखा जाता है। इस दिन महिलाएं शिव-पार्वती की पूजा करती हैं। इस दिन पूजा करने से संतान सुख, उन्नति और कुशलता के लिए व्रत रखती हैं। जानिए संतान सप्तमी की तिथि, शुभ मुहूर्त और पूजा विधि।
यह है संतान सप्तमी की पूरी कथा
एक दिन महाराज युधिष्ठिर ने भगवान से कहा हे प्रभो! कोई ऐसा उत्तम व्रत बतलाइए जिसके प्रभाव से मनुष्यों के अनेको सांसारिक क्लेश दुःख दूर होकर वे पुत्र एवं पौत्रवान हो जाएं। यह सुनकर भगवान बोले हे राजन्! तुमने बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया है। जानिए मैं तुमको एक पौराणिक इतिहास सुनाता हूँ ध्यान पूर्वक सुनो! एक समय लोमय ऋषि ब्रजरात की मथुरापुरी में वसुदेव देवकी के घर गए। ऋषिराज को आया हुआ देख करके दोनों अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उनको उत्तम आसन पर बैठा कर उनका अनेक प्रकार से वन्दन और सत्कार किया। फिर मुनि के चरणोदक से अपने घर तथा शरीर को पवित्र किया। वह प्रसन्न होकर उनको कथा सुनाने लगे। कथा के कहते लौमष ने कहा कि हे देवकी! दुष्ट दुराचारी पापी कंस ने तुम्हारे कई पुत्र मार डाले हैं जिसके कारण तुम्हारा मन अत्यन्त दुःखी है। इसी प्रकार राजा नहुष की पत्नी चन्द्रमुखी भी दुःखी रहा करती थी किन्तु उसने संतान सप्तमी का व्रत विधि विधान सहित किया। जिसके प्रताप से उनको सन्तान का सुख प्राप्त हुआ।
यह सुनकर देवकी ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा- हे ऋषिराज ! कृपा करके रानी चन्द्रमुखी का सम्पूर्ण वृत्तांत तथा इस व्रत को विस्तार सहित मुझे बतलाइए जिससे मैं भी इस दुःख से छुटकारा पाऊं। लोमय ऋषि ने कहा- हे देवकी! अयोध्या के राजा नहुष थे उनकी पत्नी चन्द्रमुखी अत्यन्त सुन्दर थी। उनके नगर में विष्णु गुप्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम भद्रमुखी था। वह भी अत्यन्त रूपवती सुन्दरी थी।रानी और ब्राह्मणी में अत्यन्त प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू नदी में स्नान करने के लिए गई। वहाँ उन्होंने देखा कि अन्यत बहुत सी स्त्रियाँ सरयू नदी में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहन कर एक मण्डप में शंकर एवं पार्वती की मूर्ति स्थापित करके पूजा कर रही थी।रानी और ब्राह्मणी ने यह देख कर उन स्त्रियों से पूछा कि बहनो!
तुम यह किस देवता का और किस कारण से पूजन व्रत आदि कर रही हो। यह सुन स्त्रियों ने कहा कि हम सन्तान सप्तमी का व्रत कर रही हैं और हमने शिव-पार्वती का पूजन चन्दन अक्षत आदि से षोडशोचर विधि से किया है। यह सब इसी पुनीत व्रत का विधान है। यह सुनकर रानी और ब्राह्मणी ने भी इस व्रत के करने का मन ही मन संकल्प किया और घर वापिस लौट आई। ब्राह्मणी भद्र तो इस व्रत को नियमपूर्वक करती रही किन्तु रानी चन्द्रमुखी राजमद के कारण कभी इस व्रत को करती, कभी न करती। कभी भूल हो जाती। कुछ समय बाद दोनों मर गई। दूसरे जन्म में रानी बन्दरिया और ब्राह्मणी ने मुर्गी की योनि पाई। ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में भी कुछ नहीं भूली और भगवान शंकर तथा पार्वती जी का ध्यान करती रही, उधर रानी बन्दरियाँ की योनि में भी सब कुछ भूल गई।
थोड़े समय के बाद दोनों ने यह देह त्याग दी। अब इनका तीसरा जन्म मनुष्य योनि में हुआ। उस ब्राह्मणी ने एक ब्राह्मणी के यहाँ कन्या के रूप में जन्म लिया उस ब्राह्मण कन्या का नाम भूषणदेवी रखा गया तथा विवाह गोकुल निवासी अग्निशील ब्राह्मण से कर दिया, भूषणदेवी इतनी सुन्दर थी कि वह आभूषण रहित होते हुए भी अत्यन्त सुन्दर लगती थी। कामदेव की पत्नी रति भी उसके सम्मुख लजाती थी। भूषण देवी के अत्यन्त सुन्दर सर्व गुण सम्पन्न चन्द्रमा के समान धर्मवीर, कर्मनिष्ठ, सुशील स्वभाव वाले आठ पुत्र उत्पन्न हुए। यह सब शिवजी के व्रत का पुनीत फल था। दूसरी ओर शिव विमुख रानी के गर्भ से कोई भी पुत्र नहीं हुआ, वह निःसंतान दुःखी रहने लगी।
रानी और ब्राह्मणी में जो प्रीति पहले जन्म में थी वह अब भी बनी रही। रानी जब वृद्ध अवस्था को प्राप्त होने लगी तब उसके गूंगा बहरा तथा बुद्धिहीन अल्प आयु वाला पुत्र हुआ वह नौ वर्ष की आयु में इस क्षण भंगुर संसार को छोड़ कर चला गया। अब तो रानी पुत्र शोक में अत्यन्त दुःखी हो व्याकुल रहने लगी। दैवयोग से भूषण देवी ब्राह्मणी, रानी के यहाँ अपने पुत्रों को लेकर पहुंची। रानी का हाल सुनकर उसे भी बहुत दुःख हुआ किन्तु इसमें किसी का क्या वश कर्म और प्रारब्ध के लिखे को स्वयं ब्रह्मा भी मिटा नहीं सकते। रानी कर्म च्युत भी थी इसी कारण उसे दुःख भोगना पड़ा। इधर रानी पण्डितानी के इस वैभव और आठ पुत्रों को देख कर उससे मन में ईष्या करने लगी तथा उसके मन में पाप उत्पन्न हुआ। उस ब्राह्मणी ने रानी का संताप दूर करके निमित्त अपने आठों पुत्र रानी के पास छोड़ दिए।
रानी ने पाप के वशीभूत होकर उन ब्राह्मणी पुत्रों की हत्या करने के विचार से लड्डू में विष ( जहर) मिलाकर उनको खिला दिया परन्तु भगवान शंकर, की कृपा से एक भी बालक की मृत्यु न हुई। यह देखकर तो रानी अत्यन्त ही आश्चर्य चकित हो गई और इस रहस्य का पता लगाने की मन में ठान ली। भगवान की पूजा से निवृत्त होकर जब भूषण देवी आई तो रानी ने उस से कहा कि मैंने तेरे पुत्रों को मारने के लिए इनको जहर मिलाकर लड्डू खिला दिया किन्तु इनमें से एक भी नहीं मरा तूने कौन सा दान पुण्य व्रत किया है। जिसके कारण तेरे यह पुत्र नहीं मरे और तू नित नए सुख भोग रही है। तेरा बड़ा सौभाग्य है। इनका भेद तू मुझसे निष्कपट होकर समझा में तेरी बड़ी ऋणी रहूंगी। रानी के ऐसे दीन वचन सुनकर भूषण ब्राह्मणी कहने लगी सुनो तुमको तीन जन्म का हाल कहती हूँ।
सो ध्यानपूर्वक सुनना, पहले जन्म में तुम राजा नहुष की पत्नी थी और तुम्हारा नाम चन्द्रमुखी था मेरा भद्रमुखी था और ब्राह्मणी थी, हम तुम अयोध्या में रहते थे और मेरी तुम्हारी बड़ी प्रीति थी। एक दिन हम तुम दोनों सरयू नदी में स्नान करने गई और दूसरी स्त्रियों को सन्तान सप्तमी का उपवास शिवजी का पूजन अर्चन करते देख कर हमने इस उत्तम व्रत को करने की प्रतिज्ञा की थी। किन्तु तुम सब भूल गई और झूठ बोलने का दोष तुमको लगा जिसे तू आज भी भोग रही है। मैंने इस व्रत को आचार विचार सहित नियम पूर्वक सदैव किया और आज भी करती हूँ। दूसरे जन्म में तुमने बन्दरिया का जन्म लिया तथा मुझे मुर्गी की योनि मिली भगवान शंकर की कृपा से इस व्रत के प्रभाव तथा भगवान को इस जन्म में भी न भूली और निरन्तर उस व्रत को नियमानुसार करती रही। तुम अपने बन्दरिया के जन्म में भी भूल गई।
मैं तो समझती हूँ कि तुम्हारे ऊपर यह तो भारी सकट है उसका एक मात्र यही कारण है और दूसरा कोई इसका कारण नहीं हो सकता है। इसलिए मैं तो कहती हूँ कि आप अब भी सन्तान सप्तमी के व्रत को विधि सहित करिये जिससे तुम्हारा यह संकट दूर हो जाए। लौमष ऋषि ने कहा- देवकी भूषण ब्राह्मणी के मुख से अपने पूर्व जन्म की कथा तथा संकल्प इत्यादि सुनकर रानी को पुरानी बातें याद आ गई और पश्चाताप करने लगी तथा भूषण ब्राह्मणी के चरणों में पड़कर क्षमा याचना करने लगी और भगवान शंकर पार्वती जी की अपार महिमा के गीत गाने लगी उस दिन से रानी ने नियमानुसार सन्तान सप्तमी का व्रत किया जिसके प्रभाव से रानी को सन्तान सुख भी मिला तथा सम्पूर्ण सुख भोग कर रानी शिवलोक को गई।
भगवान शंकर के व्रत का ऐसा प्रभाव है कि पथ भ्रष्ट मनुष्य भी अपने पथ पर अग्रसर हो जाता है और अनन्त ऐश्वर्य भोगकर मोक्ष पाता है। लोमष ऋषि ने फिर कहा कि देवकी इसलिए मैं तुमसे भी कहता हूँ कि तुम भी इस व्रत को करने का संकल्प अपने मन में करो तो तुमको भी सन्तान सुख मिलेगा। इतनी कथा सुनकर देवकी हाथ जोड़ कर लोमप ऋषि से पूछने लगी हे ऋषिराज! मैं इस पुनीत उपवास को अवश्य करूंगी, किन्तु आप इस कल्याणकारी एवं सन्तान सुख देने वाले उपवास का विधान, नियम विधि आदि विस्तार से समझाइए।
यह सुनकर ऋषि बोले- हे देवकी! यह पुनीत उपवास भादों के महीने में शुक्लपक्ष की दशमी के दिन किया जाता है। उस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर किसी नदी अथवा कुऐ के पवित्र जल में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहिनने चाहिए। श्री शंकर भगवान तथा जगदम्बा पार्वतीजी की मूर्ति की स्थापना करें। इन प्रतिमाओं के सम्मुख सोने, चांदी के तारों का अथवा रेशम का एक गंडा बनावें उस गंडे में सात गाठें लगानी चाहिए इस गंडे को धूप, दीप अष्ठ गन्ध से पूजा करके अपने में बांधे और भगवान शंकर से अपनी कामना सफल होने की प्रार्थना करें।
तदन्तर सात पुआ बनाकर भगवान का भोग लगावें और सात ही पुत्रे एवं यथा शक्ति सोने अथवा चांदी की अंगूठी बनवाकर इन सबको एक तांबे के पात्र में रख कर और उनका शोडषोचार विधि से पूजन करके किसी सदाचारी, धर्मनिष्ठ, सत्पात्रा ब्राह्मण को दान देवे। उसके पश्चात सात पुआ स्वयं प्रसाद के रूप में ग्रहण करें। इस प्रकार इस व्रत का पारायण करना चाहिए। प्रतिमाल की शुक्लपक्ष की सप्तमी के. दिन, हे देवकी! इस व्रत को इस प्रकार नियम पूर्वक से समस्त पाप नष्ट होते हैं और भाग्यशाली संतान उत्पन्न होती है तथा अन्त में शिवलोक की प्राप्ति होती है। हे देवकी! मैंने तुमको सन्तान सप्तमी का व्रत सम्पूर्ण विधान विस्तार सहित वर्णन किया है।
उसको अब तुम नियम पूर्वक करो, जिससे तुमको उत्तम सन्तान पैदा होगी। इतनी कथा कहकर भगवान आनन्दकन्द श्रीकृष्ण ने धर्मावतार युधिष्ठिर से कहा कि श्री लोमष ऋषि इस प्रकार हमारी माता को शिक्षा देकर चले गए। ऋषि के कथनानुसार हमारी माता देवकी ने इस व्रत को नियमानुसार किया जिसके प्रभाव से हम उत्पन्न हुए। यह व्रत विशेष रूप से स्थियों के लिए कल्याणकारी है परन्तु पुरुषों को भी समान रूप से कल्याण दायक है। सन्तान सुख देने वाला पापों का नाश करने वाला यह उत्तम व्रत है जिसे स्वयं भी करे और दूसरों से भी करावें। नियम पूर्वक जो कोई इस व्रत को करता है और भगवान शंकर एवं पार्वती की सच्चे मन से आराधना करता है निश्चय ही अमरपद करके अन्त में शिवलोक को जाता है।