
मां शीतला देवी महामाही की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं। चेचक (शीतला) का प्रकोप बड़ी ही तेजी से फैलता है। इससे बचने के अनेक साधनों के होते हुए भी आदिकाल से मां शीतला देवी के पूजन का विधान है। इस रोग के प्रकोप से सुरक्षा के लिए मां शीतला की पूजा और व्रत किया जाता है।
चैत्र कृष्ण सप्तमी को माता शीतला की पूजा की जाती है। मां शीतला के पूजन की कोई विशेष विधि नहीं है। इस दिन शीतल पदार्थ का ही भोग लगाया जाता है। भोज्य पदार्थ षष्ठी की रात को ही बनाकर रख लिए जाते हैं।
इस दिन न तो सब्जी में छौंक लगाते हैं और न ही घर में आग जलाते हैं। जो भी स्त्री-पुरुष माता शीतला का व्रत रखता है। वह दोपहर के समय माता का पूजन के बाद कथा सुनकर दिन में एक बार भोजन करता है। देश के कई अंचल में शीतला अष्टमी मनाने का भी विधान है।
व्रत की कथा
एक बार एक राजा के इकलौते पुत्र को चेचक नाम का रोग हो गया। उन्हीं के पड़ोस में एक और परिवार रहता था, उनके लड़के को भी उसी समय चेचक की बीमारी हो गई। दूसरा परिवार बहुत गरीब था। लेकिन वह शीतला माता का उपासक था।
वह इस रोग के सभी नियमों को बीमारी के दौरान भली भांति निभाता रहा। यानी घर में बहुत साफ-सफाई, माता शीतला की नियमित पूजा करते। नमक नहीं खाते और न ही सब्जी में छौंक लगाते। न ही कड़ाही चढ़ाते । गरम वस्तु न स्वयं खाते न चेचक के रोगी लड़के को देते। ऐसा करने से उसका पुत्र जल्द ही ठीक हो गया।
उधर राजा के घर जबसे लड़के को चेचक का प्रकोप हुआ। तब से उसने भगवती के मंडव में शतचंडी का पाठ शुरु कर रखा था। रोज हवन और बलिदान होते थे। राजपुरोहित भी सदा मां भगवती के पूजन में निमग्न रहते। राजमहल में रोज कड़ाही चढ़ती, कई प्रकार के भोजन बनते। ऐसे में राजा का बीमार पुत्र खाने की इच्छा करता।
इस बात से शीतला माता नाराज हो गई। इसके चलते राजा के लड़तके को बड़े-बड़े फोड़े निकल आए। जिनमें खुजली और जलन अधिक होती थी। जब भी वह इसका इलाज कराते तो यह और भी बड़ जाते।
तभी राजा को पता चला कि पड़ोस में रहने वाले एक व्यक्ति के पुत्र को भी यही रोग हुआ था। राजा उस व्यक्ति से मिला और उस रोग से जल्द ठीक होने का उपाय पूछा। उस गरीब व्यक्ति ने राजा को नियमानुसार पूजा करने की विधि से अवगत कराया।
इन उपायों को करने से राजा का पुत्र जल्द ही ठीक हो गया और तभी से शीतला देवी की पूजा चेचक रोग के इलाज के रूप में की जाने लगी।