मल्टीमीडिया डेस्क। जब कभी महाभारत के प्रसंगों को टटोला जाता है तो सिवाय युद्ध की विभीषिका के कुछ भी उभरकर सामने नहीं आता है, लेकिन क्लेश, छल-कपट और षड्यंत्रों के बीच भी इस कहानी में जीवन को बेहतर तरीके से जीने के अनगिनत संदेश भरे हुए हैं। महाभारत के चुनिंदा प्रेरक प्रसंगों में से एक को हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
महाभारत युद्ध महाविनाश और धर्म की विजय के साथ समाप्त हो चुका था। कौरव पक्ष के करीब सभी योद्धा युद्ध में मारे जा चुके थे। कुछ समय तक राजपाठ का भोग करने के बाद पांडवों ने भी मोक्ष की महायात्रा पर निकलने का निश्चय कर लिया और हिमालय की ओर निकल पड़े।
महाप्रयाण की यात्रा में रास्ते में ही द्रौपदी समेत सभी पांडवों के प्राण निकल गए। सिर्फ युधिष्ठिर अपने प्रिय कुत्ते के साथ जीवित अवस्था में स्वर्ग पहुंचे थे।
स्वर्ग में प्रवेश करते ही युधिष्ठिर को अपने परमप्रिय भाईयों के साथ दुर्योधन भी दिखाई दिया। इस पर भीम ने युधिष्ठिर से पूछा कि भैया! दुर्योधन ने तो हमेशा अधर्म का साथ दिया, अनीति का पक्ष लिया और अपने परिजनों को दुख-तकलीफ देने के अलावा कोई काम नहीं किया। इसके बावजूद उसको अपने कौन-से पुण्य की वजह से स्वर्ग की प्राप्ति हुई है या ईश्वर के न्याय करने में कोई गलती हो गई है।
युधिष्ठिर ने भीम की बात को बड़े धैर्यपूर्वक सुना और कहा, विधि का विधान है कि पुण्य का परिणाम भले ही नाममात्र का हो, उसका फल जरूर मिलता है। लाख अवगुणों के बावजूद दुर्योधन में एक सद्गुण था, जिस कारण उसको स्वर्ग प्राप्त हुआ।
भीम ने वापस युधिष्ठिर से प्रश्न पूछा कि वह कौन-सा पुण्य था जिससे दुर्योधन को स्वर्ग की प्राप्ति हुई।
युधिष्ठिर ने कहा कि वह अपनी गलत संगति और संस्कारों की वजह से अपने जीवन को सही काम में नहीं लगा सका और षड्यंत्रों से भरा जीवन ही उसकी पहचान बनकर रह गया था, लेकिन अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पूरी लगन से जुटा रहा। अपने लक्ष्य के प्रति एकनिष्ट रहना ही उसका सबसे बड़ा सद्गुण था और इसी सद्गुण के पुण्य के कारण उसे कुछ समय के लिए स्वर्ग की प्राप्ति हुई है।
महाभारत की इस अंतर्कथा से हमको यही सीख मिलती है कि लक्ष्य के प्रति हमेशा ईमानदारी,लगन और सत्य निष्ठा से लगे रहो लक्ष्य कितना ही कठिन क्यों ना हो, उसमें असफलता मिलने पर भी उसमें कुछ अर्थों में सफलता की महक और चमक छुपी रहती है।