Yagyavalakya Jayanti : महर्षि याज्ञवल्क्य को पुराणों में ब्रह्माजी का अवतार माना गया है, इसीलिए उन्हें ब्रह्मर्षि कहा जाता है। श्रीमद्भागवत में उन्हें देवरात के पुत्र कहा गया है। भगवान सूर्य की प्रत्यक्ष कृपा से इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। कहते हैं कि एक बार याज्ञवल्क्य ने घोर जप-तप कर सूर्यदेव को प्रसन्न किया। सूर्यदेव ने वरदान मांगने को कहा। याज्ञवल्क्य ने कहा कि मुझे आपसे यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करना है। सूर्यदेव के अनुग्रह से मां शारदे आचार्य के मुख में प्रविष्ट हुईं। ऐसा होते ही महर्षि याज्ञवल्क्य के पूरे शरीर में जलन होने लगी और वे पानी में कूद पड़े।
तुरंत सूर्यदेव प्रकट हुए और कहा कि इस पीड़ा के समाप्त होते ही तुम्हारे मन-मस्तिष्क में समस्त वेद प्रतिष्ठित हो जाएंगे। इसके बाद याज्ञवल्क्य सम्पूर्ण वेद-पुराण में पारंगत हो गए। याज्ञवल्क्य की कृतियों में शुक्ल यजुर्वेद संहिता, याज्ञवल्क्य स्मृति, याज्ञवल्क्य शिक्षा, प्रतिज्ञा सूत्र, शतपथ ब्राह्मण, योगशास्त्र आदि का विशेष महत्व है। इनकी कृति वृहदारण्यकोपनिषद् के तीन भाग में द्वितीय भाग इन्हीं के नाम पर ‘याज्ञवल्क्य कांड' के नाम से प्रसिद्ध है।
याज्ञवल्क्य ऋषि वैशम्पायन के शिष्य थे तथा राजा जनक के कार्यों में एक सलाहकार एवं गुरू रूप में उनके साथ रहे। महर्षि याज्ञवल्क्य का जन्म फाल्गुन कृष्ण पंचमी को मिथिला नगरी के निवासी ब्रह्मरथ और सुनंदा के घर हुआ था। सातवें वर्ष में याज्ञवल्क्य ने अपने मामा वैशंपायन से शिक्षा ग्रहण कर वेद की समस्त ऋचाएं कंठस्थ कर ली थीं। बाद में इन्होंने उद्धालक आरुणि ऋषि से अध्यात्म तो ऋषि हिरण्यनाम से योगशास्त्र की शिक्षा ली। आगे की शिक्षा के लिए वे वर्धमान नगरी के गुरु शाकल्य के आश्रम में ऋग्वेद का विशेष अध्ययन करने के लिए गए।
एक बार गुरु वैशम्पायन से उनका विवाद हो जाता है, जिस कारण गुरू उनसे अप्रसन्न हो उन्हें अपने शिष्य होने के पद से तथा अपने द्वारा दिए गए ज्ञान को वापस लौटाने के लिए कहते हैं। गुरू की आज्ञा सुनकर याज्ञवल्क्य ने अपने सारी विद्या को उगल दिया जिसे, वैशंपायन के अन्य शिष्यों ने तीतर बनकर चुग लिया यजुर्वेद की यही शाखा, तैत्तिरीय शाखा के नाम से विख्यात हुई थी। ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य जी गुरू का ज्ञान देकर ज्ञान रहित हो जाते हैं इसलिए पुन: ज्ञान की प्राप्ति हेतु वह सूर्य देव की उपासना की थी।
ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य की जयंती पर देशभर में प्रार्थना, पूजा एवं सभाएं होती हैं, जिनमें उनके द्वारा रचित ग्रंथों का पाठ एवं वर्णन होता है। इनके समस्त गुणों एवं उपदेशों को अपनाकर सभी अपना मार्ग दर्शन पाते हैं।