महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में उल्लेख मिलता है कि जब हनुमानजी ने लंका दहन किया तो बाद में वो बहुत पछताए थे। हनुमान जी भगवान शिव के ग्याहरवें रुद्र हैं।
कहते हैं जब रावण अपने दस सिरों को काटकर 'महामृत्युंजय' मंत्र का जाप कर रहा था तब उसने ग्याहरवां सिर नहीं काटा था। तभी से 11वां रुद्र रावण से असंतुष्ठ थे। यही रुद्र त्रेतायुग में हनुमानजी के रूप में अवतरित हुए।
लेकिन हनुमाजी ये भूल गए थे। कि उनके पास बहुत शक्तियां जिनसे वह शत्रु का संहार पल भर में कर सकते हैं। दरअसल उन्हें एक ऋर्षि का शाप था, जिसके चलते वो अपने आराध्य प्रभु भगवान श्रीराम की आराधना में खोए रहते थे।
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' में उल्लेख मिलता है कि, 'का चुप साध रहा बलवाना' या फिर 'रामकाज लगि तव अवतारा।'
हनुमानजी जब माता सीता की खोज में लंका जाने वाले थे तो उन्हें भगवान श्रीराम, सुग्रीव, जामबंत आदि ने उनका बल याद दिलाया था। जब उन्हें अपने बल का अहसास हुआ तो वो लंका की तरफ आसमान में उड़कर चल दिए। रास्ते में उनका सामना लंकिनी नाम की राक्षसी से हुआ। लंकिनी ने जब हनुमानजी को जाने से रोका तो, हनुमानजी ने मुक्के से उस पर प्रहार किया।
हनुमाजी द्वारा ऐसा करने पर लंकिनी अपने असली रूप यानी दिव्य रूप में प्रकट हुई। उसने कहा कि मुझे शाप था कि मैं लंका जाने वाले हर व्यक्ति को रोकूं। जो कोई मुझ पर मुक्का से प्रहार करेगा। वहीं लंका का संहार कर सकेगा।
हनुमाजी को अपना खोई हुई शक्ति का आभाष और भी ज्यादा हो गया और वहां जाने के बाद उन्होंने माता सीता से भेंट की, माता सीता ने श्रीराम के लिए एक अंगूठी दी जिसे लेकर हनुमानजी वहां से चल दिए। वो चेतावनी देने के लिए रावण से भी मिले। लेकिन रावण ने हनुमानजी की पूंछ में आग लगा दी। हनुमानजी इस बात से क्रोधित हो गए और उन्होंने रावण की लंका को जला दिया।
लेकिन लंका से लौटते समय उन्हें माता सीता का ख्याल आया, उन्होंने सोचा कहीं लंका दहन के कारण माता भी... ? यदि ऐसा हुआ तो भला में भगवान श्रीराम को क्या मुंह दिखाउंगा।
इस बात का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में एक श्लोक के जरिए मिलता है, 'यदि दग्धात्वियं सर्वानूनमार्यापि जानकी। दग्धा तेन मया भर्तुहतमकार्यजानता।'
यानी सरा लंका जल गई तो निश्चित रूप से जानकी भी जल गई होंगी। ऐसा करके मैनें निश्चित रूप से अपने स्वामी का बहुत बड़ा अहित कर दिया है। उन्होंने मुझे यहां माता सीता का पता लगाने के लिए भेजा था और मैनें यह क्या कर दिया।
इस बात को विचार करते हुए हनुमानजी बहुत पछताए थे। लेकिन बाद में जब उन्हें पता चला कि माता सीता सुरक्षित हैं तो उनकों इस बात से सांत्वना मिली और पुनः राम-रावण युद्ध की तैयारियों में व्यस्त हो गए।