काकभुशुण्डि रामचरितमानस के पात्र हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है कि काकभुशुण्डि परमज्ञानी रामभक्त थे। पूर्व के एक कल्प में कलियुग का समय चल रहा था। उसी समय काकभुशुण्डि जी का प्रथम जन्म अयोध्या पुरी में एक शूद्र के घर में हुआ।
उस जन्म में वे भगवान शिव के भक्त थे। लेकिन अहंकार के वशीभूत होकर उन्होंने अन्य देवताओं की निंदा करते थे। एक बार अयोध्या में अकाल पड़ जाने पर वे उज्जैन चले गये। वहां वे एक दयालु ब्राह्मण की सेवा करते हुये उन्हीं के साथ रहने लगे।
एक बार उस शूद्र ने भगवान शंकर के मंदिर में ब्राह्मण का अपमान कर दिया। इस पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके उसे शाप दे दिया कि, तुमने गुरु का निरादर किया है इसलिए अब सर्प की अधम योनि मिलेगी।
और सर्प योनि के बाद तुझे 1000 बार अनेक योनि में जन्म लेना पड़े। शूद्र के गुरु बड़े दयालु थे इसलिये उन्होंने शिव जी की स्तुति करके अपने शिष्य के लिये क्षमा प्रार्थना की। गुरु के द्वारा क्षमा याचना करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा, ब्राह्मण! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जायेगा।
इस शूद्र को 1000 बार जन्म अवश्य ही लेना पड़ेगा किन्तु जन्म और मरने में जो दुःख होता है वह इसे नहीं होगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। इसे अपने प्रत्येक जन्म का स्मरण बना रहेगा जगत् में इसे कुछ भी दुर्लभ न होगा और इसकी सर्वत्र अबाध गति होगी मेरी कृपा से इसे भगवान श्री राम के चरणों के प्रति भक्ति भी प्राप्त होगी।
इस तरह हर जन्म की याद बनी रही। समय के साथ श्री राम जी के प्रति भक्ति भी उसमें उत्पन्न हो गई। उस शूद्र ने अंतिम शरीर ब्राह्मण का पाया। ब्राह्मण बनने पर वह ज्ञानप्राप्ति के लिए लोमश ऋषि के पास गया।
जब लोमश ऋषि उसे ज्ञान देते थे तो वह उनसे अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करता था। उसके इस व्यवहार से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि जा तू चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। वह तत्काल कौआ बनकर उड़ गया।
श्राप देने के बाद लोमश ऋषि को पश्चाताप हुआ और उन्होंने उस कौए को वापस बुला कर राममंत्र दिया और साथ इच्छा मृत्यु का वरदान लोमश ऋषि ने उस ब्रह्माण को दिया।
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कौए का शरीर पाने के बाद ही राममंत्र मिलने के कारण उस शरीर से उन्हें प्रेम हो गया और वे कौए के रूप में ही रहने लगे कालांतर में काकभुशुण्डि के नाम से पहचाने गए।