मल्टीमीडिया डेस्क। पौराणिक नगरी अयोध्या प्रभू श्रीराम के पहले और उसके बाद में इतिहास के अनेक दौर की गवाह रही है। वैभव के अदभुत पल और रामराज्य की कल्पना इसी नगरी में साकार हुई तो विघ्वंस और विनाश का कहर भी इस नगरी पर बरपा है, लेकिन इसके बावजूद मर्यादा पुरुषोत्तम की इस नगरी का वैभव, पुरातन और पौराणिक स्वरूप वैदिक काल से बरकरार रहा है।
ओरछा में विराजे है अयोध्या के श्रीराम
अयोध्या की पहचान सूर्यवंश और उसके तेजस्वी महाराज प्रभू श्रीराम से है। पौराणिक मान्यता है कि अयोध्या में श्रीराम का अवतरण हुआ यहीं पर सरयू किनारे से उन्होनें स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया था। उसके बाद से प्रतिमा स्वरूप में हमेशा श्रीराम अयोध्या में विराजमान रहे। कहा जाता है कि उज्जैन के राजा महाराजा विक्रमादित्य ने अयोध्या में राम जन्मभूमी पर मंदिर का निर्माण कर श्रीराम की प्रतिमा की स्थापना की थी। ऐसा दावा किया जाता है कि सन 1528 में जब बाबर के सेनापति मीर बाकी ने राम मंदिर का विघ्वंस किया था उस वक्त ओरछा की महारानी महाराज विक्रमादित्य द्वारा स्थापित श्रीराम की मूर्ति को लेकर चली गई थी। ओरछा के मंदिर में आज भी वही मूर्ति विद्यमान है। वर्तमान में राम जन्मभूमि पर श्रीराम वह प्रतिमा विराजमान है जो 22 दिसंबर 1949 को रखी गई थी।
ऐसे पहुंचे श्रीराम अयोध्या से ओरछा
अयोध्या में बसने वाले श्रीराम आखिर ओरछा कैसे पहुंचे और फिर वहीं के होकर कैसे रह गए इसकी कहानी भी बड़ी रोचक और एक महारानी की रामभक्ति की अदुभुत दास्तान है। ओरछा में उस वक्त राजा मधुकरशाह का राजपाट था। उनकी रानी का नाम गणेशकुंवर था। राजा मधुकरशाह कृष्णभक्त थे, जबकि रानी गणेशकुंवर रामभक्त थी एक बार राजा ने अपनी रामभक्त रानी से वृंदावन चलने को कहा। रानी श्रीराम को अपना इष्टदेव मानती थी इसलिए उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। राजा को रानी की यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने रानी गणेशकुंवर को उलाहना दिया की यदि तुम इतनी रामभक्त हो तो अपने राम को अयोध्या ले आओ।
रानी गणेशकुंवरी को राजा मधुकरशाह की बात चुभ गई। रानी अयोध्या चली गई और सरयू किनारे कुटिया बनाकर साधना करने लगी। अयोध्या में संत तुलसीदास से आशीर्वाद पाकर उनकी तपस्या और ज्यादा कठोर हो गई। कठोर तप के बाद भी जब रानी को प्रभू श्रीराम के दर्शन नहीं हुए तो वह जलसमाधि के लिए सरयू के के तट पर पहुंची। उस वक्त अयोध्या के संतों ने आक्रमणकारियों से बचाने के लिए जन्मभूमि में विराजमान श्रीराम के विग्रह को जलसमाधि देकर बालू में दबा दिया था। कहा जाता है कि उस वक्त रानी गणेशकुंवर को सरयू के जल में श्रीराम के उसी विग्रह के दर्शन हुए।
रानी ने किया श्रीराम से ओरछा चलने का आग्रह
रानी गणेशकुंवरी ने भगवान श्रीराम से ओरछा चलने का निवेदन किया। उस समय श्रीराम ने रानी से तीन शर्ते रखी थी पहली मैं जिस जगह पर बैठ जाऊंगा वहां से उठूंगा नहीं। दूसरी शर्त यह थी कि वह ओरछा इसी शर्त पर जाएंगे कि उस इलाके मे उन्ही का राजपाठ रहेगा तीसरी शर्त यह थी कि वह अयोध्या से बाल्यावस्था में साधु- संतों के साथ पैदल पुष्य नक्षत्र ले जाए जाएंगे। अयोध्या से श्रीराम को रानी साधुसंतों के साथ 8 माह और 28 दिनों की पदयात्रा के बाद संवत 1631 चैत्र शुक्ल नवमी के दिन ओरछा लेकर आई थी। इसके बाद से ओरछा में मधुकरशाह ने श्रीराम के लिए राजपाट त्याग दिया और ओरछा में श्रीराम को सत्ता सौंपकर उनके नाम से राजकाज करने लगे।
यह भी कहा जाता है कि श्रीराम वनवास गमन के लिए चले गए थे। जब लौटकर आए तो उनके पिता का देहांत हो चुका था इसलिए राजा मधुकरशाह और रानी गणेशकुंवर ने श्रीराम को पुत्रवत माना और विवाह पंचमी के दिन उनका विधिवत विवाह कर उनका राजतिलक किया। राजशाही समाप्त होने के बाद आज भी ओरछा में प्रभू श्रीराम का शासन चलता है। मध्य प्रदेश पुलिस के जवान प्रभू श्रीराम के दरबार में तैनात रहते हैं और सूर्योदय और सूर्यास्त के समय उनको सलामी देते हैं। श्रीराम के मंदिर को रामराजा का महल कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि जब अयोध्या से मूर्ति को लाया गया तो महल की रसोई में मूर्ति को मंदिर मे स्थापित करने से पहले रखा गया। जब मूर्ति को मंदिर में स्थापित करने के लिए उठाने की कोशिश की गई तो मूर्ति नहीं हिली, तब महल की रसोई में मूर्ती के स्थापित कर उसको राम राजा का महल नाम दे दिया गया।