सारी की सारी शिक्षा पुरुष के लिए ईजाद की गई है। और उसी पुरुष के लिए ईजाद की गई, स्त्री को भी उसी शिक्षा के ढांचे में ढाला जा रहा है। उसके परिणाम घातक हो रहे हैं। यूनिवर्सिटी से पढ़-लिख कर जो लड़की निकलती है, उसमें स्त्रैण तत्व अनिवार्यत: कम हो जाता है। क्योंकि शिक्षा पुरुष के लिए ईजाद की गई थी।
थोड़ा उलटा सोचें तो समझ में आ जाएगी बात। कोई नगर ऐसा हो, जहां की सारी शिक्षा स्त्रियों के लिए ईजाद की गई हो। संगीत की शिक्षा वहां दी जाती हो, नृत्य की शिक्षा दी जाती हो, काव्य की शिक्षा दी जाती हो, भोजन बनाने की, कपड़े सीने की, मकान सजाने की, बच्चों को पालने और बड़ा करने की--यह सारी शिक्षा दी जाती हो। किसी नगर में स्त्रियों के लिए शिक्षा दी जाती हो और उस नगर में पुरुष बहुत दिन तक अशिक्षित रखे गए हों। फिर पुरुषों में बगावत फैले और वे कहें कि हमें शिक्षा की जरूरत है, हम भी शिक्षा लेंगे। और स्त्रियां कहें कि ठीक है, हमारे कॅालेजेस में आकर तुम शिक्षा ले डालो। तो वे पुरुष भी नाचें, गाएं, गीत बनाएं, कविता करें, घर सजाएं, बच्चों को पालने की शिक्षा लें, तो क्या परिणाम होगा उस गांव में?
उस गांव के पुरुष किसी गहरे अर्थ में स्त्रैण हो जाएंगे। उस गांव के पुरुषों में, जो पुरुष होना है वह कम हो जाएगा। वह जो पुरुष की तीव्रता है, वह जो पुरुष की प्रखरता है, वह क्षीण हो जाएगी। वह जो पुरुष के कोने हैं व्यक्तित्व में, वह गोल हो जाएंगे, वह राउंड हो जाएंगे, उनको झाड़ दिया जाएगा।
जैसा दुर्भाग्य उस गांव में पुरुषों के साथ होगा, वैसा दुर्भाग्य पूरी पृथ्वी पर आज स्त्रियों के साथ हो रहा है। उनके व्यक्तित्व का बुनियादी भेद छोड़ा जा रहा है। उस बुनियादी भेद को समझ लेना बहुत ही उचित है, क्योंकि वह बुनियादी भेद ठीक से समझ कर अगर दोनों को अपनी दिशाओं में सम-शिक्षित किया जाए, सम-विकास दिया जाए और समकक्ष लाया जाए तो ही दांपत्य शांतिपूर्ण हो सकता है। और यह पृथ्वी पूरी शांत हो जाए, अगर दंपति शांत हो जाएं। क्योंकि हमारा सारा वैमनस्य, सारा दुख, सारी पीड़ा हमारे छोटे-छोटे घरों के उपद्रवों में पैदा होती है।
जैसे एक गांव में घर-घर से धुआं निकलता है, अपने-अपने चौके से और फिर गांव के पूरे आकाश पर धुआं छा जाता है। छोटा-छोटा, एक-एक चौके से निकला हुआ धुआं धीरे-धीरे पूरे गांव के आकाश को भर देता है। सारी पृथ्वी अशांति से भर जाती है, क्योंकि जो व्यक्तियों के मिलन का मूल-बिंदू है, मूल इकाई है स्त्री और पुरुष, वह मिलन दुखद है, वहां अशांति है। वह अशांति फैलते-फैलते सारे जगत को घेर लेती है। फिर बहुत रूपों में प्रकट होती है। यह रूप इतने भिन्ना हो जाते हैं कि कहना मुश्किल है।
नारी होने का ठीक अर्थ पुरुष से बहुत भिन्न है और दोनों के व्यक्तित्व के भेद को भी थोड़ा समझना उपयोगी है। पुरुष एक्टिव है, पुरुष का सारा व्यक्तित्व क्रियात्मक है, विधायक है। स्त्री का सारा व्यक्तित्व पैसिव है, निषेधात्मक है। इस फर्क को समझ लेना जरूरी है, तो हम उनकी दोनों की शिक्षाएं, उन दोनों के जीवन का ढंग अलग तरह से सोचेंगे।
एक स्त्री किसी पुरुष को कितना ही प्रेम करती हो तो भी कभी कोई स्त्री ने पुरुष के प्रति निवेदन नहीं किया है कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। स्त्री कितना ही प्रेम करती हो तो भी वह प्रतीक्षा करती है कि पुरुष निवेदन करे। स्त्री पैसिव है, पैसिव का मतलब है, वह प्रतीक्षा कर सकती है--आक्रामक नहीं हो सकती है, आक्रमण नहीं करेगी, पहल नहीं करेगी। पुरुष को ही आक्रमण करना होगा, पुरुष को ही पहल करनी होगी। पुरुष को ही पहला कदम उठाना होगा। स्त्री प्रतीक्षा करेगी। और बड़ी हैरानी की बात है, अगर स्त्री पहल करे और आक्रमण करे तो पुरुष के लिए कभी प्रीतिकर न हो पाएगी। क्योंकि आक्रमण करने वाली और पहल करने वाली स्त्री में पुरुष को पुरुष के ही दर्शन दिखाई देंगे। उसे स्त्री नहीं मिल सकेगी फिर वहां, स्त्री अनंत प्रतीक्षा है--मौन प्रतीक्षा, आक्रामक नहीं, अनाक्रामक। पुरुष आक्रमण है, एग्रेशन है।
वह जाएगा, पहल करेगा। लेकिन अगर कोई पुरुष प्रतीक्षा करे तो कोई स्त्री उसे पसंद नहीं करेगी, कभी प्रेम नहीं कर पाएगी। इसलिए कोई स्त्री ऐसे पुरुष को प्रेम नहीं कर पाती जो उसके पीछे छाया बन कर चलने लगे, उससे कभी प्रेम नहीं कर पाएगी क्योंकि उसमें उसे एक स्त्री ही दिखाई पड़ेगी।
मैं यह कह रहा हूं कि पॅाजिटिव, निगेटिव के; एक्टिव और पैसिव के, सक्रिय और निष्क्रिय के भेद को समझ लेना बहुत जरूरी है। हम एक पत्थर को पानी में फेंकते हैं, तो पत्थर पानी में गिरता है, फौरन गड्ढा बना लेता है। पत्थर एक्टिव है, सक्रिय है और पानी पैसिव है, वह फौरन गड्ढा बन जाता है। लेकिन बड़ा मजा यह है कि पत्थर नीचे गया कि पानी फिर अपनी जगह पर वापस लौट आता है। पैसिविटी, निष्क्रियता शक्तिहीन नहीं है।
अगर एक पहाड़ से पानी का झरना गिरता हो और नीचे पहाड़ पर पत्थर की चट्टानें पड़ी हों तो आज पत्थर की चट्टानें बहुत शक्तिशाली मालूम पड़ेंगी, क्योंकि झरना उन पर बिखर-बिखर जाएगा, टूटेगा और बिखर जाएगा और चट्टानें अकड़ी खड़ी रहेंगी; लेकिन सौ साल बाद झरना बह रहा होगा, चट्टानें रेत हो चुकी होंगी, उनका कोई पता न रह जाएगा। वह जो पहले दिन बहुत एग्रेसिव मालूम पड़ी थी चट्टानें, टूटने को बिल्कुल राजी नहीं, और पानी जो बिल्कुल ही विनम्र मालूम पड़ा था, कि पत्थर ने जैसा कहा वैसा हो गया था, वह सौ साल में जीत गया है। पुरुष की जीत प्राथमिक हो सकती है, अंतिम जीत स्त्री की हो जाती है।