हिंदी को भारत की राजभाषा घोषित करने के लिए देश में कई दौर के आंदोलन हुए। यूं तो भाषाओं की लड़ाई आजादी के पहले भी थी, लेकिन इसे आधिकारिक रूप तब मिला जब संविधान लिखते समय प्रश्न उठा कि 'देश की राष्ट्रभाषा कौन-सी हो?"
दरअसल, उत्तर भारत के अधिकांश सूबे चाहते थे कि हिंदी को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए, जबकि समूचा दक्षिण भारत इस विचार से इत्तेफाक नहीं रखता था। कन्न्ड़, मलयालम, तमिल और तेलुगु भाषी लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारने को तैयार नहीं थे।
जाहिर है, भाषा का समर्थन और विरोध तब उन्माद के स्तर तक पहुंच गया। संसद में होने वाली बहसों में हिंदी का पक्ष जितने जोरदार ढंग से रखा जाता, उतनी ही तल्खी से उसका विरोध किया जाता। आखिरकार इस लड़ाई में अंग्रेजी को फायदा हो रहा था, क्योंकि अंग्रेजों के जाने के बाद भी राज-काज का अधिकांश काम इसी भाषा में हो रहा था।
मगर उसी दौर में एक वाकया ऐसा हुआ, जिसने इस मामले को नया मोड़ दे दिया। ये था संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में एक छात्र द्वारा हिंदी का समर्थन करते हुए हर सवाल के जवाब में उत्तर से पहले 'हिंदी माता की जय" लिखना। दरअसल, 1965 में हिंदी को भारतीय संघ की प्रमुख भाषा घोषित कर दिया गया तो हिंदी पट्टी के छात्र भी बहुत उत्साहित हो गए।
एक छात्र ने देश की सर्वोच्च परीक्षा यूपीएससी में हर जवाब हिंदी में ही लिखा और हरेक के आगे 'हिंदी माता की जय" भी लिख दिया। मगर निरीक्षक उसकी इन भावनाओं से प्रभावित नहीं हुए और उसे हर उत्तर में शून्य अंक दे दिए।
जब रिजल्ट घोषित हुआ और ये बात सामने आई कि हिंदी के चलते उसे शून्य अंक दिए गए हैं तो मामला फिर भड़क उठा। हालांकि इस मामले में केंद्र सरकार के कानून मंत्रालय ने यूपीएससी का समर्थन किया, मगर गृह मंत्रालय अड़ गया।
दरअसल, गृह मंत्रालय को डर था कि यदि वह छात्र उच्चतम न्यायालय चला गया तो भाषा का मामला फिर तूल पकड़ सकता है और देश में फिर भाषा पर हिंसक दौर शुरू हो सकता है। ऐसे में कैबिनेट ने सैद्धांतिक रूप से आठवीं सूची में शामिल सभी 15 भाषाओं में उत्तर देने की छूट दे दी।
इसका असर यह हुआ कि हिंदी को लेकर जो आंदोलन खड़ा हो सकता था, वह नहीं हुआ और देश भाषायी द्वंद्व में जाने से बच गया। इससे लाखों हिंदीभाषी छात्रों को लाभ भी मिला।