स्मृतिशेष : डॉ. कलाम
जब पिताजी ने लकड़ी की नौकाएं बनाने का काम शुरू किया, तब मैं छह साल का था। ये नौकाएं तीर्थयात्रियों को रामेश्वरम् से धनुषकोडि तक लाने-ले जाने का काम करती थीं। एक स्थानीय ठेकेदार अहमद जलालुद्दीन के साथ पिताजी समुद्रतट पर रहकर नौकाएं बनाने लगे।
नौकाओं को आकार लेते मैं काफी गौर से देखता था। एक दिन सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चली और समुद्र में तूफान आ गया। उसमें कुछ लोग और हमारी नावें बह गईं। उसी में पामबान पुल भी टूट गया और यात्रियों से भरी एक ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। तब तक मैंने समुद्र की खूबसूरती को ही देखा था, लेकिन उसकी अपार एवं अनियंत्रित ऊर्जा ने मुझे हतप्रभ कर दिया।
रेल के डिब्बे की खिड़की से मैंने देश का देहाती रूप देखा, जो इससे पहले कभी नहीं देखा था। धान के खेतों में सफेद धोती और पगड़ी लगाए हुए काम कर रहे लोग तथा चमकीले रंग बिखरेती महिलाओं को देखकर ऐसा लगता था, जैसे यह कोई सुंदर पेंटिंग हो। मैं खिड़की से चिपककर बैठा हुआ था। ज्यादातर जगहों पर लोग किसी न किसी काम में लगे दिखाई पड़े, जिसमें एक तरह की लय और शांति थी।
कभी-कभार कोई बच्चा नजर आ जाता और ट्रेन की ओर हाथ हिलाता पीछे छूट जाता। मैं एक हफ्ते सूफी संत हजरत निजामुद्दीन के शहर दिल्ली में रुका और डीटीडी एंड पी (एयर) में इंटरव्यू दिया। इंटरव्यू में पूछे गए सारे प्रश्न आम थे और उनमें ऐसा कोई नहीं था, जो मेरी योग्यता को चुनौती देने वाला हो। इसके बाद वायुसेना चयन बोर्ड में दूसरा इंटरव्यू देने के लिए मैं देहरादून रवाना हो गया।
इस चयन बोर्ड में व्यक्तित्व पर ज्यादा जोर था। भीतर की उत्तेजना के बावजूद मैं शांत दिख रहा था। लेकिन वायुसेना के लिए पच्चीस में से जिन आठ उम्मीदवारों का कमीशन अधिकारी के लिए चयन हुआ, उसमें मैं नौवें नंबर पर ही अटक गया। मेरे भीतर एक गहरी हूक उठी। मुझे यह समझने में थोड़ा वक्त लगा कि वायुसेना में नौकरी पाने का एक अवसर, जो मेरे हाथों के करीब था, मेरे पास आकर निकल गया है। ऊहापोह में उलझा मैं ऋषिकेश आ गया। गंगा में स्नान किया और उसकी शुद्धता का आनंद लिया। मैं स्वामी शिवानंद से मिला। वे श्वेत धवल धोती और पैरो में खड़ाऊं पहने थे। मैं उनकी अत्यंत सम्मोहक, निश्छल मुस्कान और कृपालु भाव देखकर दंग रह गया। मैंने स्वामीजी को अपना परिचय दिया। मेरे मुस्लिम नाम की उनमें जरा भी प्रतिक्रिया नहीं हुई। मैंने उन्हें भारतीय वायुसेना में अपने नहीं चुने जाने की विफलता के बारे में बताया।
उन्होंने धीमे और गहरे स्वर में कहा : एक शुद्ध इच्छा, जो तुम्हारे हृदय और अंतरात्मा से उत्पन्न् होती हो, एक विस्मित कर देने वाली विद्युत चुंबकीय ऊर्जा लिए होती है। रात को जब मस्तिष्क सुषुप्त अवस्था में होता है तो यह ऊर्जा आकाश में चली जाती है। हर सुबह यह ऊर्जा ब्रह्मांडीय चेतना लिए फिर शरीर में प्रवेश करती है। जिसकी परिकल्पना की गई है, वह निश्चित रूप से "ङकट होता नजर आएगा। नौजवान, तुम इस तथ्य पर ठीक
उसी तरह अनंतकाल तक भरोसा कर सकते हो, जैसे सूर्योदय के अकाट्य तर्क पर भरोसा करते हो।
पंखोंरहित, हलका और तीव्र मशीनवाला वाहन तैयार करने के उत्साहजनक उद्यम ने मेरे दिमाग की खिड़कियां खोल दीं। मुझे जल्द ही हॉवरक्राफ्ट और एयरक्राफ्ट के बीच कम से कम एक लाक्षणिक गुण दिख गया। आखिर राइट बंधुओं को भी पहला हवाई जहाज तैयार करने में सात साल लग गए थे।
ड्राइंग बोर्ड पर कुछ महीने काम करने के बाद हम सीधे हार्डवेयर विकसित करने में जुट गए। लेकिन मुझे हमेशा यह लगता रहता था कि मेरे जैसे ग्रामीण, छोटे कस्बे की पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को कहीं किनारे तो नहीं कर दिया जाएगा। मैंने ठान लिया कि मुझे अपने लिए अवसर खुद तैयार करने होंगे। बैंगलोर के वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान (एडीई) के कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिक मेरे विरुद्ध जो टिप्पणियां करते थे, उनसे मुझे सन् 1896 में राइट बंधुओं पर लिखी जॉन ट्रॉब्रिज की कविता याद आ गई : 'बांस और सुतली से, मोम से हथौड़े से, कुंदों से पेंचों से, जोड़कर जुगा डकर, चमगादड़ से "ङेरित दो भाई दीवाने, झोंक रहे कोयला फूंक रहे धौंकनी, बना रहे देखो तो लकड़ी की एक परी!"
जब हमारी परियोजना एक साल पुरानी हो चली, तो तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णामेनन एडीई के दौरे पर आए। मैं उन्हें अपनी कार्यशाला में ले गया। कृष्णामेनन ने मुझसे कई सवाल पूछे और अंत में डॉ. मेदीरत्ता से कहा कि कलाम की इस जुगत से जैम की परीक्षण उड़ान संभव है। भगवान शिव के वाहन के प्रतीक रूप से इस हॉवरक्राफ्ट को 'नंदी' नाम दिया गया।
इस मॉडल को संपूर्ण आकार एवं रंग-रूप दिया जाना हमारी उम्मीदों से परे था। हमारे पास इसका केवल ढांचा ही था। मैंने अपने साथियों से कहा, यह उड़ने वाली मशीन है, लेकिन सनकियों के समूह द्वारा बनाई गई नहीं, बल्कि इंजीनियरों की योग्यता से तैयार मॉडल। इसकी तरफ मत देखिए। यह देखने के लिए नहीं बना, इसके साथ उड़िए। रक्षामंत्री ने अपने साथ आए अधिकारियों द्वारा जताई गई सुरक्षा संबंधी चिंताओं को नजरअंदाज करते हुए 'नंदी' में उड़ान भरी।
एक हफ्ते बाद मुझे इंडियन कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च की ओर से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। यह साक्षात्कार रॉकेट इंजीनियर पद के लिए था। मैं बंबई पहुंचा। मेरे कानों में लक्ष्मण शास्त्री द्वारा सुनाए 'श्रीमद्भगवद्गीता" के अंश गूंज रहे थे : 'तुम सब भ्रम की संतान, इच्छा और घृणा के छलावों से छलीं। देखो, उन कुछ सत्पुरुषों को, पाप से परे छलावों से छूटे। दृढ़ अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग मेरी आस्था में।"
मेरा साक्षात्कार डॉ. विक्रम साराभाई ने लिया। उनकी जिंदादिली देखकर मैं दंग रह गया। उनमें कहीं कोई ऐसा अहंकार या अक्खड़पन नहीं था, जैसाकि प्राय: साक्षात्कार लेने वाले नौजवान उम्मीदवार के सामने प्रदर्शित करते हैं। मुझे दो दिन में वापस आने को कहा गया, लेकिन अगले दिन शाम को ही मुझे अपने चयन के बारे में बता दिया गया। मुझे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति में रॉकेट इंजीनियर के पद पर रख लिया गया। मेरे जैसे नौजवान के लिए यह अपना सपना पूरा करने का एक बड़ा मौका था।
(डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की आत्मकथा 'अग्नि की उड़ान" से)