Exclusive Interview: भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने पिछले सप्ताह आंध प्रदेश के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से अपना तीसरा चंद्रमा मिशन चंद्रयान-3 लॉन्च किया। यह उपलब्धि एक प्रमुख अंतरिक्ष शक्ति के रूप में देश की स्थिति को आगे बढ़ाएगी। अगर मिशन सफल होता है, तो भारत उन तीन अन्य देशों के समूह में शामिल हो जाएगा। जिन्होंने चंद्रमा पर नियंत्रित लैंडिंग का प्रबंधन किया है। जिसमें अमेरिका, सोवियत संघ और चीन शामिल हैं। 23 अगस्त को चंद्रमा पर लैंडिंग की उम्मीद है।
चंद्रयान-3 चांद के दक्षिणी ध्रुप पर उतरने वाला पहला अंतरिक्ष यान होगा। भारत के चंद्रमा मिशनों का व्यापाक उद्देश्य क्या है। प्रोपल्शन मॉड्यूलर, लैंडर मॉड्यूल और रोवर जैसे घटक चंद्रमा मिशन में कैसे योगदान करते हैं। जागरण इंग्लिश के साथ एक विशेष साक्षात्कार में इसरो के प्रमुख केंद्र, स्पेस एप्लीकेशन सेंटर (एसएसी), अहमदाबाद के निदेशक निलेश एम. देसाई ने चंद्रयान-3 के महत्व, मिशन में शामिल तकनीकी प्रगति, रिसर्च और पृथ्वी पर सूचना वापस भेजने के लिए संचार प्रक्रिया पर चर्चा की।
इस सवाल पर निलेश एम.देसाई ने कहा कि हमारा चंद्रयान कार्यक्रम 2003-2004 में शुरू हुआ था। हमने 2008 में चंद्रयान-1 लॉन्च किया। उसके बाद चंद्रयान-2 पर अगले 10 साल तक काम किया, लेकिन ऑर्बिटर की सफल लॉन्चिंग के बावजूद लैंडिंग सफल नहीं हो पाई।
उन्होंने कहा, 'अंतिम मील की समस्या थी। लैंडिंग से 42 किमी पहले ही लैंडर क्रैश हो गया। इस झटके ने पिछले मिशन की कमियों को दूर करने के लिए चंद्रयान-3 को आगे बढ़ाने के निर्णय को प्रेरित किया।' देसाई ने कहा कि लैंडिंग के मामले में चंद्रयान-2 विफल रहा, लेकिन ऑर्बिटर ने उल्लेखनीय रूप से काम किया। सटीक प्रक्षेपण की बदौलत उपग्रह काफी ईंधन बचाने में सफल रहा।
(निलेश एम.देसाई, अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र के निदेशक)
एसएसी निदेशक ने बताया कि पिछली बार हमारा ध्यान मुख्य रूप से सफलता प्राप्त करने पर था। जिसके परिणामस्वरूप विशिष्ट डिजाइन तैयार हुए। इस बार हमने लैंडिंग विफलता से सबक लिया है। निलेश एम.देसाई ने कहा, 'अब हमारा मुख्य उद्देश्य संभावित विफलताओं का अनुमान लगाना और उपप्रणालियों को डिजाइन करना है। जिससे प्रतिकूल परिस्थितियों में सुरक्षित लैंडिंग सुनिश्चित हो सके। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए हमने लैंडर और प्रोपल्शन मॉड्यूल में बदलाव किया।'
देसाई ने आगे बताया कि इस बार प्रोपल्शन मॉड्यूल में थ्रस्टर्स की संख्या पांच से घटाकर चार कर दी गई है। हर थ्रस्टर की क्षमता 900 न्यूटन से घटाकर 500 कर दी गई है। यह बदलाव विश्लेषण के बाद किया गया है। जिससे पता चला कि पिछले डिजाइन में काफी जोर था।
इस मिशन से अपेक्षित संभावित वैज्ञानिक खोजों पर प्रकाश डालते हुए। देसाई ने कहा, 'प्राथमिक उद्देश्य चंद्रमा की सतह और उसकी कक्षा से पृथ्वी का निरीक्षण करना है।' उन्होंने बताया कि चंद्रमा के सुविधाजनक बिंदु से पृथ्वी को देखने से प्राप्त हस्ताक्षर अन्य ग्रहों के अध्ययन के लिए मूल्यवान संदर्भ के रूप में काम कर सकते हैं।
निलेश एम. देसाई के अनुसार, चंद्रयान-3 का अन्वेषण लक्ष्य प्रयोगों को संचालित करने के लिए लैंडर पर सेंसर और पेलोड का उपयोग करना है। बहुमूल्य जानकारी इकट्ठा करने के लिए लैंडर विभिन्न कैमरा सिस्टम से लैस है। पेलोड लैंडिंग क्षेत्र के वातावरण में प्लाज्मा सामग्री का अध्ययन करेगा। जबकि एक अलग सेंसर चंद्रमा की सतह के थर्मोइलास्टिक गुणों का विश्लेषण करेगा। इसके अलावा, नासा द्वारा दिया गया एक लेजर रिफ्लेक्टोमीटर है। जिसे लेजर रेट्रोरेफ्लेक्टर ऐरे के नाम से जाना जाता है।
देसाई ने कहा, 'इससे वैज्ञानिकों को चांद और पृथ्वी के बीच की दूरी निर्धारित करने में मदद मिलेगी। नासा ने पिछले मिशनों से डेटा एकत्रित किया है। जिसमें पता चला कि चंद्रमा धीरे-धीरे हर वर्ष करीब एक मीटर और लगभग 40 डेसीमीटर पृथ्वी से दूर जा रहा है।'
उन्होंने कहा कि लैंडर पर अन्य प्रयोगों में जानकारी इकट्ठा करने के लिए विभिन्न कैमरा सिस्टम और चंद्रमा के वातावरण में प्लाज्मा सामग्री का अध्ययन करने के लिए एक पेलोड शामिल है। ये पेलोड लैंडर के 500 मीटर के दायरे में चंद्रमा की मिट्ठी की संरचना का विश्लेषण करेंगे। रोवर का मिशन मिट्टी की सतह की जांच करना और मैग्नीशियम, लोहा, कैल्शियम व अन्य घटकों जैसे तत्वों की पहचान करना है। हमारा मिशन अलग है क्योंकि हम चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की खोज कर रहे हैं। एक ऐसा क्षेत्र जिसका पहले बड़े पैमाने पर अध्ययन नहीं किया गया है।'
एसएसी निदेशक ने बताया, 'चंद्रयान-1 में केवल एक ऑर्बिटर था, जबकि चंद्रयान-2 में एक ऑर्बिटर और एक लैंडर थे। हालांकि लैंडिंग सफल नहीं रही। इस बार हम सफल लैंडिंग को लेकर आशावादी हैं।' उन्होंने कहा, इसरो के जीएसएलवी मार्क 3 लांचर की संक्रमणकालीन कक्षा में अधिकतम चार हजार टन ले जाने की सीमित क्षमता है।
निलेश एम. देसाई ने बताया कि चंद्रमा के साथ संचार में मुख्य चुनौती 384,000 किमी दूरी है। रेडियो फ्रीक्वेंसी सिग्नलों का उपयोग करके वायरलेस कम्युनिकेशन के लिए पर्याप्त सिग्नल सुनिश्चित करने के लिए वैज्ञानिकों को या तो चंद्रमा और पृथ्वी पर संचारण शक्ति बढ़ाने की जरूरत है। या सिग्नल को बेहतर ढंग से प्राप्त करने के लिए बड़े एंटीना का उपयोग करना होगा। इतनी लंबी दूरी पर सफल संचार के लिए चंद्रमा से संचार के लिए 32 मीटर व्यास वाले एंटीना का उपयोग आवश्यक है।
पृथ्वी पर सूचना प्रसारित करने की प्रक्रिया के बारे में जानकारी देते हुए उन्होंने कहा, 'चंद्रमा के साथ संचार के लिए डीप स्पेस नेटवर्क के हिस्से के रूप में हम पृथ्वी पर 32 मीटर व्यास वाले एंटीना का इस्तेमाल करते हैं। ये एंटीना वायरलेस रेडियो फ्रीक्वेंसी ट्रांसमिशन और रिसेप्शन के लिए आवश्यक है, लेकिन इसमें बड़ी दूरी शामिल है।'
देसाई ने कहा कि चंद्रमा की सतह पर रोवर द्वारा एकत्र किया गया डेटा लैंडर और बर्स्ट मोड में डीएसएन के माध्यम से पृथ्वी पर प्रेषित किया जाएगा। लैंडर अपने मेमोरी स्टोरेज में डेटा स्टोर करता है। इसे एक निश्चित समय पर भेजता है। जब पृथ्वी और चांद के बीच लिंक स्थापित हो जाता है।
उन्होंने आगे बताया कि इसरो के पास एक आकस्मिक ऑपरेशन है। जहां लैंडर चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे ऑर्बिटर के साथ संचार कर सकता है। अगर लैंडर से पृथ्वी तक सीधा संचार संभव नहीं है तो ऑर्बिटर डेटा को पृथ्वी पर रिले करेगा। यह सुनिश्चित करता है कि आपात स्थिति या आकस्मिकता के मामले में एक वैकल्पिक लिंक है।