शैलेंद्र गौतम, झज्जर। रविंदर उर्फ भिंडा पहलवान आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है, लेकिन उसे इस मुकाम पर पहुंचाने में पिता की डांट का सबसे बड़ा योगदान है। बचपन की एक डांट ने उस पर ऐसा असर डाला कि आज वह देश-विदेश में सफलता के झंडे गाड़ रहा है।
दो भाइयों में सबसे बड़ा रविंदर अभी दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में रहकर कुश्ती के गुर सीख रहा है। पिता फूल सिंह डाक विभाग में पोस्टमैन हैं। पिता की इच्छा थी कि भिंडा पढ़ लिखकर अच्छी सरकारी नौकरी करे, लेकिन वह शुरू से ही किताबों के प्रति बेपरवाह था। वह अक्सर पढ़ाई के बजाय किसी अखाड़े में कुश्ती के दांवपेंच देखता नजर आता था। पिता बताते हैं कि 14 साल की उम्र में एक दिन उसे उन्होंने तीखी झाड़ पिलाई। उन्होंने उसे किताबों व खेल में किसी एक को चुनने को कहा।
उनका कहना था कि जो भी क्षेत्र वह चुनेगा उसमें सब कुछ झोंक देना होगा। भिंडा ने चुनाव अपनी पसंद से किया। उसने कुश्ती को चुना। फूल सिंह ने बेटे की लगन देखी और उसे दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में भेज दिया। वह बताते हैं कि बेटे का जज्बा देखकर उन्होंने अपना पेट काटकर उसे पहलवान बनाया। उसकी खुराक कभी कम न होने दी चाहे खुद दो निवाले कम खा लिए। आज उनके बेटे ने देश विदेश में सफलता के झंडे गाड़े हैं, उसने हरियाणा को गौरवान्वित किया है।
महज 18 साल का भिंडा नेशनल लेबल के सात गोल्ड तथा एशिया स्तर का सिल्वर मेडल जीत चुका है। मंगोलिया में उसे वजन फालतू होने के कारण खेलने का मौका नहीं मिला। चंदगी राम गोल्ड कप में उसका वजन 65 था। उसे 74 वजन वाले पहलवान से लड़ा दिया गया। भिंडा ने देखते ही देखते उसे चित कर दिया। सोलह साल की उम्र में उसने मोहाली से जीत का जो सफर शुरू किया वह आज तक बदस्तूर जारी है।
पिता कहते हैं कि जब शुरू में भिंडा पढ़ाई से दूर भागता था तो वह उसके साथ सख्ती से पेश आते थे पर जब आज वह खेल में झंडे गाड़ रहा है तो लगता है कि किताबों से वह न्याय नहीं कर पाता। भिंडा का कहना है कि पिता ने उसे डांटा तो जरूर था पर यह आजादी भी दी कि जो चीज चुनेगा उसे करेगा और उसी वजह से आज वह चैंपियन बन सका।