उपन्यास आज भी साहित्य का केंद्र बिंदु है। विश्व स्तर पर ही नहीं भारतीय भाषाओं में भी प्रकाशित होने वाली पुस्तकें उपन्यास ही हैं। मेरी नजर में किसी भी लेखक और प्रकाशन गृह के स्थापित होने में उपन्यास माइलस्टोन का काम करता है। सामयिक प्रकाशन के संदर्भ में पिछले दो दशकों का अनुभव यही बताता है, जैसे चित्रा मुद्गल का उपन्यास 'आवां' दस संस्करण, नासिरा शर्मा का उपन्यास 'कुइयांजान' सात-आठ संस्करण, मृदुला गर्ग का साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित उपन्यास 'मिलजुल मन' छह-सात संस्करण, अपने अनूठे विषयों के कारण चर्चित कथाकार शरद सिंह के उपन्यास 'पिछले पन्नो की औरतें" और 'कस्बाई सिमोन', निर्मला भुराड़िया के उपन्यास 'ऑब्जेक्शन मी लॉर्ड' और 'गुलाम मंडी' जैसे कई उदाहरण मेरी इस धारणा को लगातार पुष्ट करते हैं। हाल ही प्रकाशित चित्रा मुद्गल के नए उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स न. 203 - नाला सोपारा' के तो सालभर में ही कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
मेरी नजरों में पाठकों से जुड़ने और साहित्य की मार्केटिंग के लिए अलग-अलग शहरों में पुस्तक मेले, बुक रीडिंग और लोकार्पण समारोह आयोजित किए जाने चाहिए। इस तरह के आयोजन से पाठकों और पुस्तक प्रेमियों से हमें सीधे जुड़ने का मौका मिलेगा। मेरा मानना है कि नई पुस्तकों के लोकार्पण, उन पर विचार गोष्ठी, लेखक-पाठक संवाद, देश के सभी छोटे-बड़े शहरों में आयोजित किए जाने चाहिए। हिंदी में प्रकाशकों को साहित्य की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापन देने चाहिए और अपने यहां से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों/लेखकों को ब्रांड बनाने की कोशिश करनी चाहिए जैसा कि सामयिक प्रकाशन अक्सर करता रहता है।
युवा रचनाकारों से मेरा आग्रह है कि वे अपने वरिष्ठ रचनाकारों की रचनाओं को जरूर पढ़े और किसी भी रचना के पहले ही ड्रॉफ्ट को अंतिम न मान लें। लोगों की रूचि अच्छे साहित्य में है। अर्थशास्त्र की एक प्रसिद्ध स्थापना है कि बहुतायत में खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर देती है। मेरा मानना है कि लेखक बनने के लिए केवल लिखना मात्र नहीं होता, आपकी समाज के प्रति एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी बनती है, लेखकों को सोचना होगा कि वे जो लिख रहे हैं, उसकी समाज में क्या उपयोगिता है। वर्चुअल दुनिया नहीं, वास्तविक समाज को ध्यान में रखकर लिखी गई रचना, कालजयी रचना बन जाती है।
दरअसल इधर हुआ यह है कि सोशल मीडिया पर लेखक होने का भ्रमजाल इस कदर गहरा गया है कि फेसबुक पर लिखी हुई रचना को ही लेखक मित्र साहित्य समझने लगे हैं। मेरा मानना है कि उनमें से अधिकांश में अधकचरापन है जो उन्हें साहित्य के गंभीर सरोकारों से नहीं जोड़ता है।
जहां तक सामयिक प्रकाशन का सवाल है, हमारे अधिकांश लेखकों से आत्मीय संबंध हैं। पिछले तीन दशकों में लेखक-प्रकाशक विवाद तो दूर की बात है, किसी भी लेखक से मामूली संवादहीनता भी सामयिक प्रकाशन के इतिहास में दर्ज नहीं है। सामयिक प्रकाशन के सूचीपत्र को देखने से यह प्रतीत होता है कि अधिकांश लेखकों जिनकी पहली किताब सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई, उनसे धीरे-धीरे यह आत्मीयता मजबूत हुई कि उनकी एक-दो नहीं, अनेक पुस्तकें, सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुईं।
मेरा मानना है कि प्रकाशकों, लेखकों और पाठकों के बीच एक मजबूत संवाद की जरूरत है। कई बार संवाद के अभाव में गलतफहमियां पैदा होती हैं। हिंदी पुस्तकों का बाजार बनाने-बढ़ाने के लिए हमें सम्मिलित प्रयास करने होंगे, बाजारीकरण के इस युग में क्या आज तक लेखक, प्रकाशक, पाठक संगठन जैसी किसी संस्था ने काम किया है? जरूरत है ऐसे संगठने की जो विचार विमर्श करके व्यापक संवाद स्थापित करे।
- महेश भारद्वाज
(लेखक सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली के प्रबंध निदेशक और सामयिक 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक हैं।)