संजय लीला भंसाली, प्रसिद्ध निर्देशक
मेरे दादाजी एक अमीर आदमी थे जो वाल्केश्वर के बंगले में रहते थे लेकिन 25 साल की उम्र तक पहुंचते हुए वे दिवालिया हो गए और उन्हें 200 स्क्वेयर फीट की जगह में गुजारा करने को मजबूर होना पड़ा। यहां केवल एक बाथरूम था और लोगों को अपनी बारी के लिए सुबह दो घंटे तक इंतजार करना होता था। इस संघर्ष के आंगन में मेरा बचपन खेला है।
जहां तक माता-पिता की बात है तो मैंने रिश्तों की उलझनों को करीब से देखा। मेरी मां मेरे पिता को बहुत प्रेम करती थी और ऐसा लगता है कि मेरे पिता भी हम सभी को चाहते थे लेकिन उन्होंने अपने प्रेम को व्यक्त नहीं किया। रिश्तों को लेकर उन दिनों आपस में बहुत तूफान चल रहा था। इसी कारण मैं माता-पिता से लगभग कट गया। लेकिन जिस दिन मेरे पिता कोमा में गए मेरी मां उनके सिरहाने बैठ गई। मां ने घर जाने से मना कर दिया और तब मैं पिता के प्रति उनके प्रेम को महसूस सकता था।
पहली बार यह हुआ कि पिता के मुंह से सिर्फ 'लीला... लीला... लीला...' ही निकलता रहा। तब मैं उनके नजदीक गया और मैंने पूछा, 'पूरी जिंदगी आपने कभी उनकी परवाह नहीं की तो अब आप उनका नाम क्यों ले रहे हैं?' यही वह दिन था जबकि मैंने तय कर लिया कि मैं अपने नाम के साथ मां का नाम जोड़ लूंगा। मैं 'संजय भंसाली' से 'संजय लीला भंसाली' हो गया। मैंने महसूस किया कि प्रेम कुछ पाने का नाम नहीं है बल्कि समर्पण है। मैंने जाना कि प्रेम कहानियों में समर्पण ही सबकुछ है। मेरे पिता जिंदगी भर जो नहीं कह पाए, वह उन्होंने मूर्छा की स्थिति में व्यक्त किया।
आज भी पुराना घर और दिन नहीं भूला
बचपन के उस मकान में एक ही कमरा था जिसमें हम सभी रहते थे। यही हमारा बेडरूम, हॉल और किचन था। कई साल मेरी मां ने लोगों के कपड़े सीने का काम किया ताकि परिवार का गुजारा चल सके। उन दिनों वह अपने ही ख्यालों में गुम रहती थी। मेरी फिल्म 'खामोशी' में सीमा बिस्वास का रोल था कि वह दो बच्चों के साथ घर-घर जाकर चीजें बेचने का काम करती हैं, इसे लोगों ने मेरे बचपन से जोड़कर भी देखा।
मेरा बचपन लोगों से कटकर रहते हुए बीता। मैं हमेशा से थोड़ा अलग-थलग ही रहा। जब मेरे चचेरे भाई-बहन घर आते तो मैं कभी उनसे बातचीत नहीं करता था। मेरा मन स्कूल में भी नहीं लगता था और पढ़ाई मेरे लिए कुछ खास मायने नहीं रखती थी। बचपन में स्कूल से आने के बाद मुझे रेडियो सुनने का शौक रहा। मैं स्कूल से आने के बाद रेडियो की दुनिया का हिस्सा बनने के लिए उत्सुक रहता था।
मुझे कहा जाता था, 'देखो फिल्मों के कारण ही हम पर कैसे मुसीबतों का पहाड़ टूटा है और हम किस तरह तंगहाली में आ गए हैं। आज हम बुरी हालत में जिंदगी जी रहे हैं। फिल्में हमारे लिए नहीं हैं।' मैं एक तरफ तो इसे सुनता लेकिन दूसरी तरफ सिनेमा का सपना भी देखा करता था। मैं उस दुनिया का हिस्सा बनना चाहता था जहां हेलन नृत्य कर रही हैं और दिलीप कुमार साहब अपने डॉयलॉग अदा कर रहे हैं। मैं आज भी भूलेश्वर के अपने घर जाता हूं ताकि उस हवा को महसूस कर सकूं और वहां की वह सूनी खिड़की देख सकूं। मेरा बचपन खेल और किस्सों से बिल्कुल भी भरा नहीं रहा बल्कि वह जीने का सामान जुटाने के संघर्ष से भरा था। मैं जानता था कि मुझे एक दिन फिल्म निर्देशक ही बनना है। यह बहुत जल्दी तय हो गया था।
इसलिए बनाता हूं फिल्मों में भव्य स्टेज
मैं कह सकता हूं कि अगर संगीत और गीत की समझ मुझे अपने पिता से विरासत में मिली है तो नृत्य की समझ मुझे अपनी मां से मिली है। उन्होंने मुझे लोक से परिचित करवाया। शादी से पहले मेरी मां पीएल राज के निर्देशन में अच्छी नृत्यांगना थीं। पीएल राज के बैले उन दिनों बड़े प्रसिद्ध थे। जब मैं बच्चा था तो मैं मां से कहा करता था कि मां मुझे भी गुरुजी के यहां ले चलो। मैं पढ़ाई छोड़कर गुरुजी का सहायक बनने की इच्छा रखता था क्योंकि उन दिनों केवल वे ही ऐसे व्यक्ति थे जो मुझे अच्छे लगते थे। लेकिन गुरबत के उन दिनों में हम बहुत छोटे घर में रहते थे। मां ने हम लोगों को बड़ा करने के लिए नृत्य छोड़ दिया।
नृत्य से वह बहुत प्यार करती थी पर छोड़ना पड़ा। कभी-कभी वह रेडियो चालू करके डांस करती थी और तब टेबल या दूसरा फर्नीचर बीच में आता था। घर छोटा सा तो था, जगह ही नहीं थी वहां ऐसी। मैं चाहता था कि मां के नृत्य के लिए बड़ा स्टेज हो जिस पर वह आसानी से नृत्य कर सके। यही वजह है कि मेरी फिल्मों में नायिकाओं के नृत्य के लिए बड़ा स्टेज होता है।
मुझे लगता है कि ऐसा सौंदर्य बोध बेहतर होता है या जिसका चरित्र मजबूत होता है उसकी सुंदरता सदैव बनी रहती है। मैंने अपने इर्द-गिर्द कई ऐसी स्त्रियों को देखा है। मैंने ये खूबियां अपनी मां और दादी-मां में देखी हैं। मजबूत महिलाएं कभी भी परिस्थितियों के सामने सर नहीं झुकाती हैं। चाहे जैसी भी परिस्थितियां हों। मुझे लगता है कि स्त्री चूंकि एक बच्चे के पालन की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम होती है तो उसी कारण उसमें यह योग्यता आती है जिसे पुरुष बमुश्किल ही समझ पाते हैं। मैंने अपनी मां को रात को 2 बजे सोते देखा है और तब भी वह साड़ी में फाल करते दिखती थी। हर सुबह छह बजे वह उठती थी और तीसरे माले से नीचे जाकर दसियों बाल्टी पानी भरकर लाती थी। मैं समझ सकता हूं कि उन बाल्टियों का वजन क्या था। तो मां को देखकर मुझे स्त्री पात्र को समझने का मन मिला है। मुझे नहीं लगता है कि मां को जिस तरह से मैंने देखा है उसे मैं अपनी फिल्मों में पूरा का पूरा बयान कर पाया हूं।
राष्ट्रीय पुरस्कार से पूरा हुआ मां का सपना
मुझे याद आता है कि मां के पास एक बक्सा था जिसमें वह सिक्के इकट्ठा करती थी, उन्हें बार-बार गिनती थी क्योंकि वे बड़ी मेहनत से इकट्ठा होते थे। इस याद को मैंने फिल्म 'गुजारिश' में गूंथा है जबकि बच्चा उस जादू के बारे में बात करता है और सारे सिक्के गिरने लगते हैं।
मैं मानता हूं कि मेरे पिता बहुत भाग्यशाली थे क्योंकि उन्हें मां का साथ मिला। मेरी मां की हमेशा से यह चाहत थी कि बतौर फिल्मकार मैं राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार हासिल करूं और जब 'बाजीराव मस्तानी' के लिए मुझे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला तो मुझे लगा कि मेरी मां की प्रार्थना स्वीकार हो गई। मुझे लगता है कि मां की दुआ का असर आपके काम में भी नजर आता ही है। उसका संघर्ष आपके साथ चलता है और आपको सपने देता है। यही वजह है कि राष्ट्रीय पुरस्कार पाना मेरे लिए बेहद खास पल है।
मैं उसकी बीमारी छिपाना नहीं चाहती थी
उजला पादुकोण, दीपिका पादुकोण की मां
एक मां के तौर पर आप कभी नहीं चाहेंगे कि आपके परिवार का कोई भी सदस्य बीमार हो। दूसरा आप यह चाहते हैं कि जब भी किसी सदस्य के साथ ऐसा हो तो बाहर किसी को भी यह मालूम न पड़े क्योंकि तब तमाम तरह की कहानियां बनने लगती हैं और अगर कोई सेलिब्रिटी है तो उसके बारे में बहुत कुछ लिखा जाने लगता है। तो जब दीपिका को लगा कि वह डिप्रेशन का शिकार है तो इस तरह का दबाव मेरे ऊपर भी था। लेकिन मैं उसकी मुश्किल समझ सकती थी। सामान्य दिनों में वह बहुत खुश रहने वाली लड़की थी। बहुत साहसी लड़की थी वह। वह जिदंगी में हर बात का सामना करने के लिए तैयार रहती थी। तो जब बार-बार वह टूटकर रोने लगी तो मेरा चिंतित होना स्वाभाविक था। उसके इस तरह बिखरने से मुझे लग गया था कि वह जिस दुष्चक्र में फंसी है उसका इलाज जरूरी है। मैंने इतना तो तय कर लिया था कि चाहे कुछ हो जाए उसे इस स्थिति से बाहर निकालना होगा।
मुझे इस बात की बिल्कुल भी परवाह नहीं थी कि सब जानकर दुनिया उसके बारे में क्या सोचेगी या उसकी स्टार वैल्यू पर क्या फर्क पड़ता है। मुझे बस इसकी चिंता थी लोग इस बात को तोड़-मरोड़कर पेश करेंगे तो मेरी बेटी के लिए चीजें किस तरह बिगड़ सकती हैं। मैंने लगातार दीपिका से बात करके जाना कि आखिर उसकी ऐसी स्थिति की वजह क्या है। उसके दिमाग में क्या चल रहा है इस बात को समझना जरूरी था। इसके बाद मुझे ऐसे काउंसलर और डॉक्टर की जरूरत थी जो इस समस्या का सही हल निकाल सकें।
मुझे तब भी लगा था कि यह ऐसी चीज है जिसे लेकर डरने के बजाय उसका सामना करने की जरूरत है। उसके लिए दवाई भी लेना पड़े तो घबराने की जरूरत नहीं है। मुझे अपनी बेटी को यह समझाने की जरूरत थी कि दूसरी बीमारियों की तरह यह भी एक बीमारी है जिसका इलाज करना होगा। मुझे लगता है कि मां अपने बच्चों की किसी भी मुश्किल का हल बेहतर तरीके से निकाल सकती हैं। मां बच्चों में जीत का भरोसा जगाए तो सबकुछ संभव है।
मुश्किल में बेटे को कभी अकेला नहीं छोड़ा
शबनम सिंह, युवराजसिंह की मां
दुनिया की कोई भी मां यह नहीं सुनना चाहेगी कि उसके बेटे को कैंसर हो गया है। खासकर भारत के वर्ल्डकप जीतने के बाद इस खबर से हमें बहुत धक्का लगा था। शुरुआत में तो मुझे इस बात का भरोसा ही नहीं हुआ, जैसा कि किसी मां को नहीं होता है। लेकिन यह सच था। कोई भी दुर्घटना आपको सुनने पर बहुत छोटी लगती है लेकिन जब वह आपके साथ होती है तो उसकी भयावहता का अंदाज होता है। युवराज स्वस्थ था, वह क्रिकेट खेल रहा था और वह अच्छा जीवन जी रहा था तो हमें भरोसा ही नहीं हुआ। मुझे युवी के बचपन के दिनों की याद आई जबकि उसे हर स्कूल से निकाला जाता था क्योंकि पढ़ाई को लेकर उसका मन नहीं लगता था।
उसके सारे ही टीचर्स उससे नाराज रहते थे। जब स्कूल में मुझे बुलाया जाता था तो बुरा लगता था लेकिन मैंने अपने बेटे का पूरा समर्थन किया। आखिर उसने क्रिकेट की रुचि को तराश लिया। अगर मैं भी उसका समर्थन नहीं करती तो यह कितना मुश्किल होता। मुझे नहीं लगता कि मैंने कुछ विशेष किया है बल्कि हर माता-पिता को उनके बच्चों का समर्थन करना ही चाहिए। अक्सर पिता बच्चों के प्रति थोड़ा रूखापन दिखाते हैं लेकिन मां उनका सबसे बड़ा सहारा होती हैं। जब भी युवी थका और निराश घर आता था तो मैं उसे अकेला छोड़ देती थी लेकिन जिस प्यार की उसे जरूरत थी वह देना कभी नहीं भूली। इसी से बहुत फर्क पड़ता है।
युवी के कैंसर की खबर से हम बहुत टूट गए थे लेकिन ऐसे में जब भी कभी आपको यह सुनने को मिलता है कि चीजें ठीक होंगी तो आप बहुत राहत महसूस करते हैं। मेरे गुरुजी ने कहा कि युवराज ठीक हो जाएगा। यह विश्वास बड़ी चीज होता है और आपको राहत देता है। एक मां के तौर पर मुझे भी युवराज में यही विश्वास जगाना था। दूसरा जब यह खबर लोगों को मालूम हुई तो हमने देखा कि बहुत सारे लोग युवराज के लिए प्रार्थना कर रहे थे इस बात ने भी बहुत हिम्मत दी कि लोग युवी को इतना चाहते हैं।
तीसरा, वे डॉक्टर जो युवराज का इलाज करने वाले थे उनसे मिलने वाली उम्मीद। उन्होंने कहा था कि इलाज बहुत कठिन होगा लेकिन आपके जीतने की संभावना पूरी है। युवी इससे विजेता बन उभरा।