शिखा वार्ष्णेय
वह इतनी धार्मिक कभी भी नहीं थी, बल्कि अपने देश में होने वाले त्योहारों की रस्मों पर अक्सर खीज कर उनके औचित्य पर मां से जिरह कर बैठती थी। उसे यह सब कर्मकांड कौरी बकवास और फालतू ही लगा करता था। फिर मां के बड़े मनुहार के बाद उनका दिल रखने के लिए वह उन रस्मों को निभा लिया करती थी। परंतु यहां आकर न जाने वो कौन-से संस्कार थे या फिर बचपन से पिलाई गई वो घुट्टी कि अब हर छोटे-बड़े त्योहारों को भारत में घरवालों से पूछ-पूछकर अपने स्तर पर मनाने की वह भरपूर कोशिश करती है।
नौकरी, बच्चे और बिना किसी घरेलू मदद के घर-बाहर के काम होने के बावजूद वह फोन पर विधि पूछकर कृष्ण जन्माष्टमी पर फलाहार और गणपति पर मोदक बनाती है तो बड़े-बड़े मंडपों में सजी विशाल दुर्गा पूजा की प्रतिमा को देखने और खिचड़ी का प्रसाद चखने भी जाती है। चांद निकलने की कोई गारंटी नहीं होती, पति को भी परमेश्वर नहीं, एक साथी मानती है फिर भी चाव से करवा चौथ का व्रत भी रखती है और तीज पर बिछिये पहनकर मेहंदी भी लगा लेती है।
जिन रस्मों पर वह खीजा करती थी, यहां अब उन्हीं को सहेजने के लिए वह सब कर्मकांड करती है। शायद उसे यह अपनी पहचान को बनाए रखने का एक माध्यम लगता है या फिर अपनों से जोड़े रखने की एक कड़ी, जो वह अपने बच्चों को विरासत में दे जाना चाहती है।
शिद्दत से निभाते हैं परंपराएं
यह अकेले उसी की कहानी नहीं बल्कि शायद हर प्रवासी भारतीय की कहानी है जो अपनी संस्कृति और पहचान को बनाए रखने के लिए अपने त्योहारों और परंपराओं को शिद्दत से निभाते हैं। शायद यही कारण है कि जो त्योहार भारत में एक खास क्षेत्र तक सीमित रहते हैं यहां आकर वैश्विक रूप धारण कर लेते हैं। यहां दुर्गा पूजा करने वाले गणपति विसर्जन भी करते हैं और पोंगल मनाने वाले गरबा भी खेलने जाते हैं। यह शहर भी उनकी इस उत्सव धर्मिता में अपना पूरा पूरा सहयोग देता है।
सावन की बौछारें भारत में पड़ना शुरू होती हैं तो उनकी महक सात समुंदर पार लंदन तक भी आ जाती है। त्योहारों के इस मौसम में अपने देश से दूर भारतीय मूल के लोग भी कान्हा और गणेश के आगमन की तैयारी करने लगते हैं। अपनी धरती से दूर उसकी मिट्टी को सहेज लेने की मंशा से यहां लंदन में प्रवासी भारतीय कृष्ण जन्माष्टमी से लेकर अन्नाकूट तक सभी त्योहार पूरे जोश और श्रद्धा से मनाते हैं।
जहां भारत में नवरात्रों के समय गरबा पर रात 11 बजे के बाद रोक लगा दी जाती है वहां लंदन में ऐसा कोई नियम नहीं लगाया जाता। पूरे शहर में अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग स्तर पर गरबों का आयोजन होता है। सुबह तीन -चार बजे तक संगीत के सुरों पर रास गरबा खेला है और बड़ी संख्या में हर देश, जाति, धर्म के लोग इसमें हिस्सा लेते हैं। दिलचस्प होता है यह देखना कि कैसे आपके विदेशी मित्र महीनों पहले ही गरबा की जानकारी और उसमें पहनने वाले परिधान जुटाने में लग जाते हैं और सभी के साथ मिलकर यह त्योहार मनाते हैं। हां, इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाता है कि आयोजन के दौरान शोर-शराबे से बाकी नागरिकों को असुविधा न हो।
लंदन में गणपति उत्सव भी मनाया जाता है। यहां रह रहे हिन्दू निवासियों की भावनाओं का सम्मान करते और उनकी सुविधानुसार इसे परंपरागत रूप से मनाने के लिए कुछ बड़े समुद्री किनारों पर बाकायदा विसर्जन की व्यवस्था भी की जाती है जिसमें सभी सरकारी महकमों का पूर्ण रूप से योगदान रहता है।
यहां हर दिल में भारत बसता है
दिवाली जैसा त्योहार बेशक भारत में अब एक दिन और कुछ घंटों की आतिशबाजी तक सिमट गया हो परंतु लंदन में कई-कई दिनों तक आकाश आतिशबाजी की रोशनी और आवाज से गुंजायमान रहता है। देसी बाजार हों या विदेशी सुपर स्टोर और मॉल सभी दिवाली की सामग्री और दिवाली सेल से भरे रहते हैं। यहां तक कि दिवाली और ईद जैसे त्योहारों पर पर लंदन के ट्रेफेल्गर स्क्वॉयर पर भव्य रंगारंग कार्यक्रम भी किया जाता है।
बेशक यह बहाना हो अलमारी में रखी साड़ियों और कुरते-पजामों को निकालने का या फिर रोज की बनी बनाई व्यस्तम जिंदगी से कुछ समय उधार लेकर अपनी जड़ों को सींच लेने का, या फिर कुछ परंपराओं और रिवाजों को निभाकर अपनी पहचान बनाए रखने का। परंतु अपनी मिट्टी से दूर विदेशी धरती पर इन त्योहारों का परंपरागत रूप से मनाना यह तो तय करता है कि आप एक भारतीय को भारत से बाहर भेज सकते हैं पर उसके दिल से भारत बाहर नहीं निकाल सकते।