International Mother Language Day 2023: मनीष करे, खंडवा, नईदुनिया प्रतिनिधि। खंडवा जिले में जनजातीय भाषाएं कोरकू, गोंदी या भीली मौखिक परंपराओं तक सीमित है। इनमें कोरकू तो विलुप्त होने के कगार पर है। एक या दो पीढ़ी के बाद यह भाषा मात्र इतिहास बन जाएगी। इनकी भाषा की कोई लिपि नहीं है और इसे अधिकतर देवनागरी या अंग्रेजी लिपि में लिखा जाता रहा है। किसी भाषा या बोली के उच्चारण को अन्य लिपि मे लिखे जाने से मूलभाव नहीं आता है।
खंडवा जिले के आदिवासी विकासखंड खालवा में कोरकू बोली के अस्तित्व पर भी संकट गहरा रहा है। यूनेस्को के भाषाई एटलस के अनुसार विश्व की 196 भाषाओं के साथ कोरकू विलुप्त हो रही है। इसे बचाने के लिए सामाजिक संस्थाएं अपने स्तर पर कार्य कर रही है लेकिन सरकारी सहयोग और दृढ़ निश्चय के बगैर यह सार्थक नहीं हो पा रहा है।
जनजातीय समुदाय की कोरकू बोली आउस्टरो -एशियाटिक मूल की भाषा है। इसके तहत कोरकू और मुंडा भाषा शामिल है। इसी कारण मुंडा और कोरकू बोली मे काफी शाब्दिक समानताएं पाई जाती है। कोरकू मध्य भारत के मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों मे बहुतायत से पाए जाते हैं। मध्य प्रदेश में इनकी मुख्य बसाहट खंडवा जिले का खालवा विकासखंड में है। इसके अलावा यह बैतूल और होशंगाबाद जिलों में कुछ स्थानों पर कोरकू समाज रहता हैं।
कोरकू भाषा अपनी बोली के स्वरूप मे बहुत सीमित है। इसमे मूल शब्द भी सीमित हैं। जब तक वे शिकार संग्राहक थे तो जो भी चीज उन्होंने देखी। इसके लिए शब्द बनाए, पर जब उन्होंने 19वीं सदी मे स्थिर जीवन अपनाया तो धीरे-धीरे नए शब्द जुड़ना बंद हो गए। जैसे-जैसे वे दूसरे समाज के संपर्क मे आए उनके शब्द अपनाते गए। इसलिए जिले मे कोरकू बोली मे उर्दू, मराठी या निमाड़ी शब्दों का प्रभाव नजर आता है।
जंगल ने उनकी भाषा को दिशा दी। जंगल से जुड़े शब्द बने जैसे शेर (कुला), सांप (बिंज), जंगली सूअर (सुकड़ी), खरगोश (कूबली), उल्लू (डूडा), भालू (बाना)। लेकिन स्थिर जीवन में उन्होंने नए शब्दों का आविष्कार नहीं किया। अधिकांश शब्द प्रचलित भाषाओं के उपयोग करने लगे। यहीं से कोरकू भाषा का विकास और प्रसार थमने से प्रभाव घटने की शुरुआत हो गई थी। वर्तमान मे नई पीढ़ी ने तो बोलचाल में भी इससे दूरी बना ली है।
अब कोरकू बोली ठहरे तालाब के पानी की तरह है। इसे दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित करने का कोई नियोजित प्रयास नहीं हो रहा है। कुछ साठ-सत्तर साल से ज्यादा उम्र के वृद्धों तक उनकी यादों मे यह बोली और परंपराएं सीमित हैं। इस कारण यह विलुप्तता की ओर अग्रसर है। कुछ परंपरागत परिवारों में एक दुविधा यह भी है कि बच्चे घर में कोरकू बोल रहे हैं और स्कूली भाषा हिंदी है। ऐसे में उनका रुझान भी अन्य भाषाओं की ओर बढ़ रहा है।
भारत मे अंडमान की ’बो‘ भाषा उस समुदाय की आखिरी महिला की मृत्यु के साथ खत्म हो गई है। इसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि एक बोली के खो जाने से कितना नुकसान होता है। किसी भी बोली मे उसकी परंपराएं, इतिहास, रीति-रिवाज और पर्यावरण के अद्भुत ज्ञान निहित होते हैं।
जिले में सामाजिक संस्था स्पंदन समाजसेवा समिति कोरकू भाषा और संस्कृति के सरंक्षण के लिए प्रयासरत् है। इसके तहत आंगनबाड़ी में स्कूल पूर्व शिक्षा के लिए कोरकू बोली मे चार्ट तैयार किए गए हैं। इसमें गिनती, पशु-पक्षी, दिशा, फलों और सब्जी के शब्द, रंगों के नाम आदि शामिल है। साथ ही एक त्रिभाषाई शब्दकोश भी तैयार किया गया है जिसमे कोरकू, हिंदी और अंग्रेजी के समानांतर शब्द हैं। साथ ही कोरकू में पारंपरिक गीतों और कहानियों का भी संग्रहण किया गया है। इसके पूर्व जिले में प्रशासन द्वारा डाइट के शिक्षकों से प्राथमिक स्तर के पाठयक्रम को कोरकू भाषा में ट्रांसलेट करवाकर पुस्तकें तैयार की थी, लेकिन यह प्रयास जमीन पर उतरने से पहले ही दम तोड़ गया।
- बच्चों को अपनी मातृ भाषा मे सीखने-पढ़ने का हक है और यह उनके समग्र विकास तथा उनकी मातृ भाषा को सहेजे रखने का एक प्रभावी माध्यम है। सरकार को भी पहल करना होगा कि वे इस भाषा की लिपि निर्मित करने और इसके व्यापक प्रचार-प्रसार मे आगे आए। - सीमा प्रकाश, स्पंदन समाजसेवा समिति
- आदिवासी विकासखंड खालवा में कोरकू बोली के संवर्धन के लिए करीब चार साल पहले कक्षा पहली से तीसरी तक का पाठयक्रम कोरकू में तैयार किया गया था। ऐसी पुस्तकें और चार्ट स्कूलों में उपलब्ध करवाए गए थे। - पीएस सोलंकी, जिला परियोजना समन्वयक खंडवा