जबलपुर, नईदुनिया प्रतिनिधि। देश-दुनिया में अपने व्यंग्यों से सुप्रसिद्ध हुए जबलपुर निवासी व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी ख्याति अब भी जस की तस कायम है। यही वजह है कि प्रतिवर्ष उनकी स्मृति को अक्षुण्य रखने आयोजन होते हैं। इस वर्ष भी परसाई व्याख्यानमाला का आयोजन होगा। सोमवार को सायं सात बजे से कलावीथिका में मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वावधान में केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश धर्मशाला के सहायक आचार्य डा.नवनीत शर्मा मुख्य वक्ता होंगे। वे परसाई से जुड़ी मूलभूत बातें रेखांकित करेंगे।
उल्लेखनीय है कि देश के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई, जिनका लेखन आजाद भारत की महागाथा बना, उनके व्यंग्य की धार जबलपुर के 'फुहारा-बाजार' से फूटी थी। यह देश की स्वाधीनता के दूसरे वर्ष 1948 की बात है, जब परसाई की 'दूसरे की चमक-दमक' शीर्षक पहली रचना जबलपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक 'प्रहरी' में 'उदार' उपनाम से छपी थी। इसके बाद कुछ अन्य रचनाएं भी उपनाम से प्रकाशित हुईं।
रचनाओं को दमदार पाया तो शुरू की लेखक की खोज :
जबलपुर निवासी वयोवृद्ध अधिवक्ता जगदीश प्रसाद गुप्ता ने यादों के झरोखे से बताया कि 'प्रहरी' के संपादक पंडित भवानी प्रसाद तिवारी व रामेश्वर गुरू ने पिछले दिनों उदार उपनाम से छपी व्यंग्य रचनाओं को दमदार पाते हुए लेखक की खोज शुरू कर दी। अंतत: उनके प्रयास रंग लाए और परसाई दोनों की पकड़ में आ ही गए। फिर क्या था, 'प्रहरी' में व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के नाम से एक के बाद एक बेहतरीन व्यंग्य-रचनाएं छपने लगीं। तस्वीर के दो पहलू और अमीरों के नाम पत्र जैसे स्तंभ काफी सराहे गए। उन्हें देखकर शहर व शहर के बाहर के अन्य अखबारों व पत्रिकाओं से भी व्यंग्य रचनाओं की मांग आने लगी। नतीजा यह हुआ कि महज दो साल के भीतर जबलपुर के परसाई देशभर में चर्चित हो गए। उनके 'सुनो भाई साधो' शीर्षक कॉलम की खूब धूम मची।
ऐसे जागा एक शिक्षक के भीतर छिपा असाधारण लेखक :
अपने समय के सबसे साहसी लेखक परसाई ने 'हम एक उम्र से वाकिफ हैं', पुस्तक में उस घटना की जिक्र किया है, जिसके बाद उनके भीतर सोया लेखक पहली बार जागा। वे लिखते हैं- ''दीवाली की जगमग रात में, मैं जबलपुर में बड़े फुहारे की सड़क से निकल रहा था। यह शहर का केंद्रीय बाजार है। यहां एक बड़ी दुकान पर लक्ष्मी की पूजा हो रही थी और सड़क पर चमचमाती हुई नई कार खड़ी थी। कुछ बच्चे कार को प्रशंसा से देख रहे थे। दो बहुत गरीब बच्चे लोभ को रोक नहीं पाए। कार पर हाथ फेरने लगे। ड्राइवर आया और दोनों को तमाचे मारे। वे रोने लगे। मैं खड़ा-खड़ा यह दृश्य देख रहा था। उसने मुझे झकझोर दिया। मेरी वर्ग-चेतना को जगा गया वह दृश्य। बहरहाल, इस घटना को अपनी कल्पनाशीलता व भाषा की सामर्थ्य के साथ लिखा और लेखक की जगह पर उपनाम 'उदार लिखकर 'प्रहरी में प्रकाशनार्थ भेज दिया। वह रचना छप गई। इस तरह परसाई का लेखन शुरू हुआ।
नावक के तीर की तरह अपने समय के जनशत्रुओं को घायल किया :
22 अगस्त, 1224 को जन्में और 10 अगस्त, 1995 को अलविदा हुए परसाई के 1948 से शुरू हुए लेखन की विकास-यात्रा का दायरा 47 वर्षीय रहा। आसपास से लेकर जमाने की पहचान तक गहरा रिश्ता कायम करने वाले परसाई ने नावक के तीर की तरह पैने व्यंग्यों के जरिए अपने समय के जनशत्रुओं को बुरी तरह घायल किया। यही नहीं उन्होंने लेखन-कला का विस्तार किया। कहन की नई-नई शैलियां विकसित कीं। जैसे-चिठ्ठी-पत्री की कला, चौपाल में बतियाने की कला, नुक्कड़ भाषणों की कला, बयान और साक्षात्कार की कला आदि। कबीर की सच्ची विरासत के हकदार की तरह उनका समग्र लेखन अपने समय को समझने-परखने की ईमानदार कोशिश रहा। वे ताउम्र जिन सवालों से टकराते रहे, वे जीवन के और इसीलिए साहित्य के सबसे जरूरी सवाल थे। इस सिलसिले में खुद परसाई ने कहा था-साहित्य का सृजन जीवन से होता है। जो जीवन के मूल्य हैं, वही साहित्य के भी। उसके सिवाय अलग से उसका कोई मूल्य नहीं है। इसीलिए स्पष्ट कथन और स्वाभाविक ओज के बिना साहित्य अपनी सार्थकता खो देता है।