World Book Day 2024: राघव तिवारी, इंदौर। मैं आपकी अपनी किताब बोल रही हूं... वैसे तो मुझे अपने जन्म का याद नहीं। हां इतना पता है कि मुझसे पहले लोग पत्थरों और दीवारों पर लिखा करते थे। सभ्यता विकसित होती गई और मेरा विस्तार होता गया। पुराण और महाकाव्य के रूप में मेरी आज भी पूजा होती है। पहले लोग हर किताब को पढ़ा करते थे, फिर बाजार में मेरे इतने रूप (ज्यादा किताबें) आ गए कि लोग भ्रमित हो गए और चुन-चुनकर पढ़ने लगे। इसके बाद डिजिटल युग आने से मेरी दुनिया काफी सीमित हो गई। अब तक आपने मेरे माध्यम से पूरी दुनिया को जाना, सबकी कहानियां पढ़ीं, परंतु आज मेरा दिन (विश्व पुस्तक दिवस) है, इसलिए मैं अपनी दास्तां सुनाऊंगी।
मैं अपने बदलाव के लिए कुछ कर तो नहीं सकती। बस बदलता दौर देख रही हूं। सामान्य इंसान से मैंने लोगों को प्रेमी, साहित्यकार, वीर, क्रांतिकारी, शिक्षित आदि बनाया। लोगों ने मुझे बहुत प्यार भी दिया। मेरे घर यानी
पुस्तकालय में लोग बड़े सम्मान से आते थे, फिर एक बार दुनिया में आधुनिकता की क्रांति शुरू हुई। हर हाथ में स्मार्टफोन, लैपटाप, गूगल पहुंचने लगा। मेरा वजूद कम होता गया। अब लोग पढ़ना कम और सुनना ज्यादा पसंद करने लगे।
पहले लंबी वीडियो फिर शार्ट वीडियो ने मेरी दुनिया काफी सीमित कर दी। इसके बाद लोगों ने
ई-बुक पढ़ना शुरू कर दिया। अब मैं आम से खास होने लगी। मेरा प्रसार हर जगह नहीं होने लगा। कुछ मुख्य लेखकों के जरिए मेरी प्रसिद्धि सीमित हो गई। हर कुछ ही किताबें हैं जो हजारों और लाखों की ब्रिकी तक पहुंचती हैं। लोग दूसरे से फीडबैक लेकर ट्रीजर समझकर ही मुझे पढ़ना शुरू करते हैं।
अब यह खुशी की बात है कि दुख की, पता नहीं, परंतु यह अच्छा है कि मैं हर हाथ से निकलकर वास्तविक पाठकों के हाथ तक सीमित हो गई जो सच में संवेदनशील होकर पढ़ना और समझना चाहते हैं। आइए मेरे समाज से जुड़े दिग्गज जैसे साहित्यकारों, पुस्तकालय अध्यक्ष आदि से मेरी यात्रा के बारे में और जानते हैं।
पैसे के रुतबे वालों ने मेरी गुणवत्ता खराब की
लोगों में मेरी पहचान थी कि कोई भी किताब पढ़ लो ज्ञान ही मिलेगा। मेरे प्रकाशन को लेकर प्रकाशक काफी संवेदनशील होते थे। मुझमें छपने के लिए कंटेंट का बेहतर होना आवश्यक होता था, परंतु धन्ना सेठों ने अपने पैसों की धौंस दिखाकर प्रकाशकों से कुछ भी छपवा दिया। अपने शौक और अपनी अलमारी में अपने नाम से किताबें सजाने के लिए लोगों ने मेरी मर्यादा तार तार कर दी। इस हरकतों से लोग डरने लगे। अब लोग मेरे हर स्वरूप को नहीं पढ़ते हैं। मुझे पढ़ने से पहले वह मेरे कंटेंट के बारे में काफी जानकारी जुटाते हैं, ताकि उनका समय बर्बाद न हो।
हमें किताबों की ओर लौटना होगा
साहित्यकार राकेश शर्मा ने बताया कि किताबें सामूहिक समाज का मन और चित्त बनाती हैं जिसमें समाज जीता है। लोगों में आज ज्ञान की प्यास कम होती जा रही है, परंतु सूचना की प्यास बढ़ती जा रही है। अब सुनने की स्थिति बन गई है मनन करने की नहीं। गोपालदास नीरज ने कहा था कि लोग 500 रुपये का टिकट लेकर मुझे सुनने आ रहे हैं, परंतु वह 50 रुपये की किताब नहीं लेते हैं। हमें पढ़ने की तरफ लौटना होगा। जब कालोनी, स्कूल आदि का विज्ञापन होता है तो एसी, खेल का मैदान, पानी आदि कई वीआइपी सुविधाएं गिनाई जाती हैं, परंतु उसमें पुस्तकालय गायब होता है।
किताबों के संस्करण आने का करते थे इंतजार
साहित्यकार पद्मा सिंह ने बताया कि पहले लोग एक किताब पढ़ने के साथ ही उनके आगामी संस्करण आने का इंतजार करते थे। रोहतास मठ, चंद्रकांता जैसे साहित्यों का खूब चलन था। इससे हमारी चेतना काफी सक्रिय रहती थी, एकाग्रता बढ़ती थी। पहले साहित्यकार अपने साहित्यकार होने का गुणगान नहीं करते थे। परंतु अब अधजल गगरी जैसा ज्ञान लिए लोग एक दो किताबें छपवाकर अपने साहित्यकार होने का प्रचार करते हैं। साहित्य संवेदनशील है, इससे गंभीरता से लेना चाहिए।
अब लोग पुस्तकालय की तरफ लौट रहे
शासकीय श्री अहिल्या केंद्रीय पुस्तकालय प्रमुख लिली डावर ने बताया कि कुछ समय पहले तक लोग किताबों से मानो दूर भाग रहे थे, परंतु अब मुझे यह देखते हुए खुशी होती है कि लोग पुस्तकालय की तरफ लौट रहे हैं। पहले लोग आनलाइन ई-बुक के जरिए पढ़ते थे लेकिन जब आंखों की समस्या होने लगी तो लोग फिर से किताबों की भौतिक रूप की तरफ लौटने लगे। अगर इतिहास की बात करें तो पहले बच्चे छुट्टियों में कोर्स के अलावा किताबें पढ़ते थे। 25 पैसे में पुस्तकालय से कई दोस्त मिलकर कई किताबें लाते थे, फिर पढ़कर आपस में बांटते रहते थे ताकि एक ही खर्च में सभी दोस्त किताबें पढ़ लें।