डॉ. ईश्वर शर्मा बिछड़ौद, उज्जैन
नईदुनिया ने पढ़ने-पढ़ाने की प्रवृत्ति को सदैव ही रोमांचित किया है। अखबार के नियमित, साप्ताहिक विभिन्न् स्तंभ हो या समाचार संकलन एवं प्रस्तुतीकरण की विधा, समाचार की निष्पक्षता हो या विश्वसनीयता... नईदुनिया का कोई सानी नहीं। नईदुनिया के समाचार शीर्षक की ही चर्चा करें तो सामान्य खबरों में ही शीर्षक पूरे समाचार को पढ़ने के लिए रुचि उत्पन्न् करते हैं।
देश-विदेश में कोई बड़ी घटना घटती है तो मन में आतुरता और बढ़ जाती है कि कल यह खबर नईदुनिया में किस प्रकार से होगी, खबर की कैसी होगी शीर्ष पंक्तियां।
एक घटना 28 दिसंबर 2007 की याद आ रही है। उज्जैन रेलवे स्टेशन पर सुबह जब ट्रेन चलने को थी तभी अखबार बांटने वाले से बेनजीर की मौत के स्वर सुनाई दिये। विगत देर शाम घटी दुर्घटना से अब तक मैं अनजान ही था। ट्रेन चलने में कुछ ही पल शेष थे। ससुराल भी इंटीरियर में था अत: एक-दो दिन अखबार से दूर ही रहना था। आनन-फानन में कुछ अखबार देखे पर उनकी खबर बेनजीर की मौत के साथ बिल्कुल भी न्याय नहीं कर रही थी। अब मेरी अधीरता यह थी कि नईदुनिया ने इस दुर्घटना को कैसे लिया होगा।
आसपास नईदुनिया न देख मैंने बुक स्टाल की ओर तेजी से कदम बढ़ाए। नईदुनिया मिल गया। हम भारतीय बड़े भावुक होते हैं। बेनजीर के उनके शासन काल के आग उगलने वाले बयान मैं भूल चुका था। याद आ रहा था तो दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की महिला नेत्रियों सिरिमाओ भंडारनायके, इंदिरा गांधी, आंग सांग सू की, शेख हसीना की तरह ही उनका संघर्षमय व दुर्घटनाओं से भरा जीवन और उनका अंतिम समय का साहसभरा निर्णय क्योंकि इस बार बेनजीर निर्वासित जीवन से अपनी जान की परवाह किए बगैर वतन आईं थी। मैं जितना भावुक और संवेदनशील था ऐसा ही मैने नईदुनिया को भी पाया। नईदुनिया में सफेद दुपट्टे से सर ढंके पूरी मासूमियत के साथ बेनजीर भुट्टो का चित्र था और समाचार की शीर्ष पंक्तियां थी 'जम्हूरियत की खातिर बेनजीर कुर्बान"।
बाबूजी के लिए अखबार यानी...नईदुनिया
वर्ष 1970 के प्रारंभिक दशक का यह वह समय था जब इकलौता नईदुनिया अखबार तराना से पोस्टमैन भागीरथ जी बाबूजी के लिए लाते थे। अखबार का बाबूजी को बड़ा बेसब्री से इंतजार रहता था। आज 50 साल के बाद भी यही बेसब्री नईदुनिया के लिए उनकी बनी हुई है।
उस समय बरसात के महीनों में तराना-बिछड़ौद मार्ग में पढ़ने वाली कालीसिंध नदी जब पूर में रहती थी तो चार-पांच दिन के इकट्ठे अखबार आते थे। फिर बाबूजी का पढ़ने का सिलसिला देर रात्रि तक चलता था और क्रम से ताजा अखबार सबसे आखिरी में आता। वर्ष 1976 में जब स्कूल में मेरा दाखिला हुआ तो घर पर नईदुनिया में अक्षर पहचानना एक प्रकार से टेस्ट सा हो गया और तीसरी तक आते-आते नईदुनिया का मुझे भी इंतजार होने लगा।
नईदुनिया के दीपावली विशेषांक का भी बड़ा इंतजार होता था। उस समय मेरे लिए खास बात यह थी कि इसमें सेवा सहकारी संस्था बिछड़ौद का शुभकामना संदेश छपता था। छपे हुए अक्षरों में बाबूजी का नाम 'अध्यक्ष पुरुषोत्तम पटेल" मैं कई बार पढ़ता था और कटिंग सहेज कर रखता था। मैं नईदुनिया के सच्चे पाठक की दौड़ में बाबूजी से हार गया। आज जब भी अखबार आता है तो पहले वे मुझे देते हैं क्योंकि आज की भागमभाग में हम तो बस अपने काम की बात देखने वाले लोग हो गये। उन्हें तो आज भी अपने नईदुनिया के लिए वही दो घंटे का वक्त चाहिए। उनके लिए आज भी नईदुनिया में खबर आना सत्यता का प्रमाण है।