- अनूठी दास्तां दिव्यांग लेखक ललित कुमार की, जिसने दिव्यांगों के लिए लोगों की सोच बदल दी
इंदौर (नईदुनिया रिपोर्टर)। ग्रामीण अंचल में जन्में ललित कुमार को महज 4 साल की उम्र में ही पोलियो ने ऐसा घेरा कि 7 बार सर्जरी कराने के बाद भी उसने अब तक पीछा नहीं छोड़ा है। शायद जिंदगी भर छोड़ेगा भी नहीं। लेकिन ललित को इसका कतई मलाल नहीं है। वो इसे साधारण समस्या की ही तरह लेते हैं। कहते हैं, परफेक्ट कोई नहीं है। हम सभी में कुछ खामियां और खूबियां हैं। हां, मेरी खामी ऐसी है कि सबको आसानी से नजर आती है। इसलिए लोग मुझे दिव्यांग कहते हैं, लेकिन यकीन जानिए कि मैंने इस कोटे से कभी कोई सुविधा या सहूलियत नहीं ली क्योंकि बचपन में जब बड़े परिश्रम से पढ़ाई करता था तो लोग कहते थे कि इसको तो दिव्यांग कोटे से सरकारी नौकरी मिल जाएगी, इसलिए इतनी मेहनत कर रहा है। तभी से संकल्पबद्ध हो गया कि जो भी पाना है सामान्य आदमी की ही तरह पाना है।
ये प्रेरणादायक अनूठी कहानी है दिल्ली के दिव्यांग लेखक ललित कुमार की। एक कार्यक्रम के सिलसिले में शुक्रवार को शहर आ रहे ललित कहते हैं कि अपने परिवार का पहला ग्रेजुएट बना और गांव का पहला आदमी जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ के इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट में सेवा करने का अवसर मिला। करीब 5 साल तक पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम करने के दौरान भी मुझे महसूस होता रहा कि यहां मेरी प्रतिभा का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इसलिए नौकरी छोड़ कर इंटरनेट पर 'कविता कोश' शुरू किया। एक लाख 40 हजार पेज में फैले इस कविता कोष में करीब एक दर्जन भाषाओं के चार हजार से अधिक कवियों की कविताएं संकलित हैं और हर महीने 5-6 लाख लोग इस कोश पर करीब 40 लाख कविताएं पढ़ते हैं। सबसे बड़ी बात कि ये सबकुछ बिलकुल निःशुल्क उपलब्ध है।
दूर करनी है भय और असुरक्षा की भावना
संयुक्त राष्ट्र संघ में काम करने के दौरान मुझमें जिंदगी के प्रति नया नजरिया विकसित हुआ। वहीं पर मैंने ये भी महसूस किया कि भारतीय समाज में भविष्य को लेकर भय और असुरक्षा की भावना इतनी गहरी पैठ कर चुकी है कि इसे निकालना जरूरी है, वरना हम कितने भी आगे बढ़ने की कोशिश करें, अगर एक पांव गड्ढे में ही अटका रहेगा। तो हम आगे कैसे बढ़ पाएंगे। मैं भारतीय समाज के मन से डर की ये भावना ही निकलना चाहता हूं क्योंकि इस मानसिक विकलांगता के चलते हम पहले ही बहुत पीछे रह गए हैं।
गद्य कोश को भी मिल रहा शानदार प्रतिसाद
कविता कोश की शुरुआत मैंने हिंदी और उर्दू के कवियों से की थी। जहां एक ओर इसमें निराला और दिनकर की कविताएं थीं तो दूसरी ओर गालिब और मीर की गजलें थीं। मेरी दृढ़ मान्यता है कि हिंदुस्तान में हम हिंदी और उर्दू को अलग-अलग नहीं कर सकते क्योंकि दोनों भाषाएं आपस में इतनी घुल-मिल गई हैं कि अब इन्हें तक्सीम करना नामुमकिन है। इसके बाद मैंने नेपाली, गढ़वाली, भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज जैसी कई भाषाएं और बोलियों के साहित्य से कविता कोश को समृद्ध किया। उम्मीद है कि जल्दी ही सिंथाली भाषा का साहित्य भी हमारे पाठकों को मिलने लगेगा। इसी तारतम्य में गद्य कोश की भी शुरुआत की गई है, जिसमें कहानियों के अलावा नाटक, संस्मरण, आलेख, लघुकथाएं समेत गद्य विधा की सभी शैलियों की कृतियां शामिल की गई हैं।
कहां गई वो पब्लिक लाइब्रेरी?
मुझे सही मायने में पढ़ने का शौक अपने गांव की पब्लिक लाइब्रेरी से लगा। पांव में दिक्कत की वजह से ज्यादा खेलकूद नहीं पाता था इसलिए लाइब्रेरी में जाकर खूब किताबें पढ़ता था। मैं मानता हूं कि कविता कोश और गद्य कोश जैसे बड़े प्रयासों में सफलता दिलाने में उस लाइब्रेरी में किया गया अध्ययन बहुत काम आया है। लेकिन अब हमारे आसपास से उस तरह की पब्लिक लाइब्रेरीज गुम होने लगी हैं। मुझे लगता है कि बुक रीडिंग जरूरी है और नई पीढ़ी को इसकी ओर प्रेरित करने के लिए पब्लिक लाइब्रेरीज भी बेहद जरूरी हैं।
इसलिए आत्मकथा का नाम रखा 'विटामिन जिंदगी'
संयुक्त राष्ट्र संघ का जॉब छोड़ने के बाद मेरी जिंदगी में बड़ा बदलाव तब आया, जब स्कॉटलैंड सरकार से मिली स्कॉलरशिप के चलते मुझे जीव विज्ञान की पढ़ाई आगे बढ़ाने का मौका मिला। वहां मेडिकल रिसर्च की सबसे बड़ी संस्था 'मेडिकल रिसर्च कौंसिल' के साथ भी काम किया, जिसका असर मेरे जेहन् में अब तक कायम है। इसीलिए जब आत्मकथा लिखी तो उसका नाम 'विटामिन जिंदगी' रखा क्योंकि जैसे शरीर के लिए विटामिन जरूरी है वैसे ही मन को भी 'सकारात्मक विचारों' की विटामिन नित्यप्रति चाहिए, तभी जिंदगी बेहतर बन सकेगी।
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