Pithora Painting: कला के रंग, पिथोरा चित्रकारी- मान्यता, कला और पहचान
Pithora Painting: आदिवासीबहुल क्षेत्र में पिथोरा के प्रति आस्था देखी जा सकती है। अब कई आदिवासी युवतियां इस शैली में कलाकृतियां बनाकर रोजगार प्राप्त कर रही हैं। वर्तमान में इसके जरिए अपनी पहचान बनाने वालों की संख्या करीब 20 हो गई है।
By Sameer Deshpande
Edited By: Sameer Deshpande
Publish Date: Sat, 08 Oct 2022 08:25:49 AM (IST)
Updated Date: Sat, 08 Oct 2022 08:25:48 AM (IST)
Pithora Painting: इंदौर। पिथोरा केवल एक कला ही नहीं बल्कि मान्यता भी है। दीवार पर उकेरी लोककला की यह आकृतियां केवल पूजा तक ही सीमित नहीं बल्कि जीवन का दर्शन भी कराती हैं। यह कला दर्शाती है उस जनजीवन को जो प्रकृति के बीच अपनी जिंदगी की गाड़ी बखूबी हांकता है। झाबुआ, आलीराजपुर और गुजरात के कुछ हिस्सों की पिथोरा किसी के लिए कला है तो किसी के लिए पूजा। आज भी झाबुआ-आलीराजपुर जैसे आदिवासीबहुल क्षेत्र में पिथोरा के प्रति आस्था देखी जा सकती है।
मन्नत पूरी होने पर एक कमरे को गोबर से लीपा जाता है और पुरुष उसमें पिथोरा मांडते हैं। इसे आम बोलचाल में पिथोराबाबा कहा जाता है और उसकी पूजा भी होती है। गेरू और खड़िए से विवाह से मृत्यु तक के तमाम महत्वपूर्ण पलों, खेत, शिकार, उत्सव, रोजमर्रा की जिंदगी आदि के पल, स्थानीय वनस्पति, पशु-पक्षी इसमें अंकित होते हैं और फिर उनकी पूजा की जाती है। पिथोरा की शैली को अपनाते हुए पद्मश्री भूरीबाई बारिया इसे अब और भी लोकप्रिय बना रही है।
भारत भवन से शुरू हुई यात्रा
झाबुआ के गांव पिटोल मोटी बावड़ी की रहने वाली भूरीबाई अब पिथोरा की शैली में चित्रकारी कर रही हैं। वे बताती हैं चूंकि पिथोरा पुरुषों द्वारा मन्नात पूरी होने पर पूजन के लिए ही बनाया जाता है इसलिए मैं तो इसे नहीं बनाती पर इसके अंकन की शैली को लेकर चित्रकारी कर रही हूं। विवाह के बाद जब पति के साथ मजदूरी करने भोपाल आई तो वहां भारत भवन का काम चल रहा था। उस वक्त वहां जे. स्वामीनाथन आए हुए थे और उन्होंने मुझसे जब चर्चा की तो इस कला के बारे में जाना और उसे वहां बनाने के लिए कहा। इस तरह मेरी कला यात्रा शुरू हुई जो करीब 40 वर्ष से जारी है।
समय के साथ हुआ बदलाव
एक समय था जब पिथोरा केवल चूने और खड़िया से बनती थी लेकिन मैं अपने मनोरंजन के लिए जो आकृतियां बनाती थी उसमें रंगों का उपयोग करती थी। फूल-पत्तों से लाल-हरा रंग और तवे की कालिख से प्राप्त काला रंग इनमें भरा करती थी। अब दीवार की कला लकड़ी के तख्ते, कागज, कैनवास पर भी आ गई और बाजार के रंग इसमें शामिल हो गए। मेरी तरह अब कई आदिवासी युवतियां इस शैली में कलाकृतियां बनाकर रोजगार प्राप्त कर रही हैं। वर्तमान में इसके जरिए अपनी पहचान बनाने वालों की संख्या करीब 20 हो गई है। वास्तव में यह कला आमजनजीवन के समीप होने और आकृतियों के सहज होने से लोगों के दिलों तक आसानी से पहुंच जाती है और यही इसकी लोकप्रियता की बड़ी वजह है।