Anhad Naad Column Indore: ईश्वर शर्मा, नईदुनिया इंदौर। अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन में आचार्य गोविंददेव गिरि ने करुणा भरे गले से कहा था- तपश्चर: तपश्चर:। अर्थात् इस दुनिया में तप की कमी हो रही है। उनका कहना कुछ अर्थों में सच भी है। किंतु समाज में कुछ लोग ऐसे हैं, जो आज भी तप की प्रतिमूर्ति बने हुए हैं। ऐसे ही शख्स हैं आचार्य विष्णुप्रसाद शर्मा। शास्त्र अनुसार ब्रह्मचर्य व गृहस्थ धर्म के पालन के बाद इन्होंने कठोर तप से भरा वानप्रस्थ ग्रहण किया व बीते 10 वर्षों से एकभुक्त (एक समय भोजन) की तपश्चर्या में हैं। बीते दिनों ये एक ऐसी यात्रा पर निकले, जिसमें गुरुजनों व प्रियजनों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का भाव था। अलग-अलग नगर-गांव पहुंचकर कहीं गुरुजन को प्रणाम किया, तो कहीं प्रियजन को आशीष दिया। यह कारवां जहां से गुजरा, लोग इन्हें नमन करते रहे।
वर्तमान दौर में मां-बाप की यही शिकायत होती है कि हमारा बचुआ तो बिना मोबाइल के रहता ही नहीं। मगर आपको क्या ही आश्चर्य होगा जब आप जानेंगे कि एक नन्हीं बालिका इसलिए रोती है ताकि उसे भगवत गीता सुनने को मिल जाए। है न चौंकाने वाली सुखद बात। दरअसल, वंदिता जब छोटी थी, तब उसके पिता प्रलभ श्रीवास्तव उसे रोने से चुप कराने के लिए गीता के श्लोकों को सस्वर उच्चारण करने लगते। श्लोक सुनते-सुनते बच्ची के मस्तिष्क को आदत हो गई। अब तो श्लोक शुरू और रोना बंद। भले ही श्लोक उसे समझ न आते हों, किंतु उनका सस्वर पाठ उसे संगीत की तरह लगता है। इससे न तो वह मोबाइल की लती हुई, न टीवी की। काश, अन्य माता-पिता भी बच्चों को ऐसे पालने का उपक्रम करते।
क्या ऐसा हो सकता है कि कोई व्यक्ति वमन यानी उल्टी करवाए और किसी के इलाज में लगने वाले हजारों रुपये बचा दे? बीते दिनों ऐसा ही हुआ। हुआ यूं कि एक व्यक्ति को सिरदर्द बना रहता था। उसने एलोपैथी के डाक्टर को दिखाया। डाक्टर ने लिखा- पहले अलां जांच करवाओ, फिर फलां। जब जांच रिपोर्ट आई, तो डाक्टर ने फिर कहा- अब अलां दवा लो, फिर फलां दवा लो। किंतु इन सारे धतकरम से मरीज का न अलां-फलां हुआ, न भला। वह अंतत: आयुर्वेद की शरण गया। आयुर्वेदाचार्य ने कहा- ज्यादा कुछ नहीं, बस कुछ उल्टी करवाएंगे और आप ठीक हो जाएंगे। पीड़ित के सहमत होने पर आयुर्वेदाचार्य ने वासंतिक वमन शिविर में भर्ती किया और कुछ चूर्णादि देकर इतनी उल्टियां करवाईं कि प्राण आंखों में आ गए। इसी बिंदु पर आयुर्वेदाचार्य ने फिर चूर्ण दिया व उल्टियां रोक दीं। आश्चर्य कि अगले दिन से उसका सिरदर्द कम होता गया।
कुछ लोग होते हैं, जिन्होंने जीवन में एक पौधा नहीं लगाया, लेकिन आरामदेह सोफे पर बैठकर चिंता जताते हैं कि ऐसे ही पेड़ कटते रहते तो दुनिया का क्या होगा? कुछ लोग नल को पूरा खोलकर भल्ल-भल्ल बहते पानी से हाथ धोते-धोते कहते हैं- लोगों को पानी बचाना चाहिए, वरना अगली पीढ़ी का क्या होगा? इन दोनों श्रेणियों के लोगों पर दया आती है। किंतु एक तीसरी श्रेणी भी होती है, जिसमें लोग कहते नहीं बल्कि करके दिखाते हैं। यह किस्सा ऐसे तीन जांबाज युवाओं का है, जिन्होंने ज्ञान देने के बजाय सैकड़ों पेड़ लगा दिए। यह कहानी तब पता चली जब इंदौर निवासी एक डाक्टर अपने पैतृक नगर गए और वहां सैकड़ों पेड़ देख खुशी से फूले न समाए। इंदौर आकर उन्होंने उन तीन युवाओं राजेंद्र चौहान, दीपक सोलंकी व हेमंत धाकड़ की कहानी लिखी। इसी श्रेणी के लोग पानी पर नहीं बल्कि पत्थरों पर लकीर खींचते हैं।