वैभव श्रीधर, भोपाल। प्रदेश में 21 साल बाद अब खाली कुर्सी, भरी कुर्सी के लिए मतदान व्यवस्था खत्म होगी। नगर निगम के महापौर के खिलाफ अविश्वास होने पर राइट टू रिकॉल के तहत पार्षदों को जो अधिकार दिग्विजय सरकार ने नगर निगम अधिनियम 1956 के माध्यम से दिया था, वो समाप्त किया जा रहा है। नगरीय विकास एवं आवास विभाग ने महापौर और अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराने का जो मसौदा तैयार किया है, उसके बाद राइट टू रिकॉल बेमानी हो जाएगा। यही वजह है कि विधि विभाग ने भी इस प्रस्ताव पर अधिनियम में संशोधन को हरी झंडी दे दी है। इसी तरह नगर पालिक अधिनियम में भी संशोधन किया जाएगा।
सूत्रों के मुताबिक कमलनाथ सरकार ने नगरीय निकाय चुनावों में बड़ा बदलाव करने का निर्णय कर लिया है। इसके लिए तैयार मसौदे को वरिष्ठ सचिव समिति और विधि विभाग ने मंजूरी भी दे दी। अब प्रस्ताव कैबिनेट में मंजूर कराकर अध्यादेश के जरिए नई व्यवस्था लागू की जाएगी।
इसके तहत महापौर और अध्यक्ष का निर्वाचन अप्रत्यक्ष प्रणाली यानी जनता नहीं पार्षदों के माध्यम से होगा। ऐसे में पूर्ववर्ती दिग्विजय सरकार ने कानून में जो राइट टू रिकॉल का अधिकार दिया था, उसके कोई मायने ही नहीं रह जाते हैं। दरअसल, पार्षद ही अपने में से महापौर और अध्यक्ष का चुनाव करेंगे। ऐसे में यदि अविश्वास की स्थिति बनती है तो फिर वे अपने में से ही किसी दूसरे व्यक्ति को चुन लेंगे। मतदान कराने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
तीन चौथाई पार्षद के अविश्वास पर होता है राइट टू रिकॉल
नगर निगम अधिनियम 1956 की धारा 23 (क) के मुताबिक तीन चौथाई पार्षद महापौर के प्रति अविश्वास जताते हुए प्रस्ताव कलेक्टर को देते हैं। कलेक्टर आरोपों का परीक्षण करवाता है और पुष्टि करते हुए प्रस्ताव शासन को भेजता है। शासन की ओर से राज्य निर्वाचन आयोग से खाली कुर्सी, भरी कुर्सी के लिए चुनाव कराने को कहा जाता है। इसके लिए महापौर को कार्यरत रहते कम से कम दो साल हो गए हों और कम से कम छह माह का कार्यकाल बाकी हो। यही व्यवस्था नगर पालिका अधिनियम 1961 की धारा 47 में है।
अभी जनता सीधे चुनती है महापौर-अध्यक्ष
मौजूदा चुनावी व्यवस्था में शहरी मतदाता दो वोट डालते हैं। एक वोट के जरिए वे अपना महापौर और अध्यक्ष चुनते हैं तो दूसरे के माध्यम से पार्षद। जिस दल के पार्षदों का बहुमत होता है उसकी परिषद बनती है।
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