मनोज भदौरिया, आलीराजपुर : आदिवासी संस्कृति में प्रकृति की पूजा किसी पर्व की तरह की जाती है। जल, जंगल और जमीन से जुड़े समुदाय के ऐसे ही प्रमुख पर्वों में से एक है दिवासा। दिवासा प्रकृति पूजन का पर्व है। हर साल वर्षा प्रारंभ होने के बाद जैसे ही प्रकृति पुष्पित-पल्लवित होने लगती है और फसल की बोवनी हो जाती है, आदिवासी इस पर्व को हर्षोल्लास से मनाते हैं।
हर गांव, फलिये या टोले में दिवासा का दिन अलग-अलग होता है। गांव के प्रधान, पटेल या तड़वी त्योहार का दिन तय करते हैं। इस समय आदिवासी अंचल में बोवनी हो चुकी है और धूमधाम से दिवासा मनाया जा रहा है। इस पर्व के तहत रिश्तेदारों को आमंत्रित किया जाता है और घर में ताये-चीले सहित अन्य पकवान तैयार किए जाते हैं। इस भोज को जातर भी कहते हैं।
जंगल के बीच बाबादेव यानी जंगल के देवता का पूजन किया जाता है और कामना की जाती है कि अच्छी वर्षा हो और फसल का बेहतर उत्पादन हो। बाबादेव को समाजजन अपने पास उपलब्ध श्रेष्ठतम चीजें अर्पित करते हैं। पर्व के लिए गांव-फलिये में अनुकूलता देखकर दिन तय किया जाता है। पर्व के दिन रिश्तेदारों को आमंत्रित कर पूजन सामग्री अर्पित करने के बाद समाजजन जातर ग्रहण करते हैं।
इस पर्व में अच्छी वर्षा और बेहतर उपज की कामना की जाती है। समाजजन इसमें पारंपरिक वाद्ययंत्र बांसुरी बजाना भी शुरू कर देते हैं। यह सिलसिला फसल कटने तक चलता है। फसल कटने के बाद समाजजन नवई पर्व मनाते हैं। पर्व में अच्छी बारिश की कामना की जाती है।
आलीराजपुर
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