MP Election 2023: संजय मिश्र। मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस सत्ता में आने के लिए जोर लगा रही हैं। मतदाताओं को लुभाने के लिए दोनों दलों का प्रचार अभियान जोर पकड़ चुका हैं लेकिन कुछ गांवों-कस्बों में ऐसे नागरिक भी हैं जो अपनी समस्याओं या अपने विचारों को लेकर मतदान के बहिष्कार की घोषणा कर रहे हैं।
चौक-चौराहों पर वे बैनर लगा रहे हैं कि सड़क या पानी नहीं तो वोट नहीं। सवाल यह है कि मतदान न करके आखिर वे किसका बहिष्कार करेंगे? "नोटा अर्थात इनमें से कोई नहीं" का विकल्प अपनाने वालों की संख्या भी कम नहीं है। उनका तर्क है कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा कोई दल या उम्मीदवार नहीं है जिसे वे अपना मत दें। इसी तर्क के आधार पर वे उस नोटा का उपयोग करते हैं जो न सरकार चुनता और न विपक्ष।
नोटा में पड़े मतों की गणना तो होगी लेकिन वह किसी काम का नहीं होगा। इसलिए जरूरत है कि मत देते समय पक्ष या विपक्ष चुनने के अधिकार के बारे में जरूर सोचा जाए। चुनाव आयोग के सामने भी यह चुनौती है कि नोटा को पसंद करने वाले मतदाताओं को किस तरह मुख्यधारा में मोड़ा जाए। केवल जीत के लिए चुनाव नहीं होता, इसलिए नोटा से अच्छा है कि नाखुश लोग अपना उम्मीदवार खड़ा करके अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सकते हैं।
एक दशक पूर्व गैर सरकारी संगठन पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर ऐसी व्यवस्था देने की मांग थी जिसमें किसी भी प्रत्याशी से सहमत न होने वाले लोग भी मतदान कर सकें। लंबी सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को मतपत्र-ईवीएम में इसके लिए आवश्यक प्रविधान करने का निर्देश दिया।
इसके बाद चुनाव आयोग ने 2013 में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में नोटा का विकल्प देने का फैसला किया। आयोग का मानना था कि नोटा के जरिये ऐसे लोगों की आस्था लोकतंत्र में बनाई जा सकती है, जो सरकार या विपक्ष से अप्रसन्नता जताते हुए मतदान करने नहीं जाते। ईवीएम में यह विकल्प मिलने के बाद ऐसे मतदाता भी मतदेय स्थल तक जाने लगे जो किसी एक उम्मीदवार को मत देने में खुद असहज महसूस कर रहे थे।
वास्तव में यह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है लेकिन जब कुछ संगठनों के लिए यह अप्रसन्नता व्यक्त करने का अनिवार्य माध्यम बन जाए तो इस पर विचार करने की जरूरत है। नोटा में डाले गए मतों का कोई मूल्य नहीं होता। यदि किसी क्षेत्र के अधिकतम मत भी नोटा में डाल दिए जाएं तो भी प्रत्याशियों की जीत-हार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला।
2018 के चुनाव परिणाम पर नजर डालें तो पाएंगे कि मध्य प्रदेश में विधानसभा की 11 सीटें ऐसी थीं जहां भाजपा प्रत्याशियों की हार के पीछे नोटा में पड़े मतों को बड़ा कारण माना गया लेकिन वास्तव में यह एक विचार भर है। यह मानना कठिन है कि 11 सीटों पर जिन लोगों ने नोटा का विकल्प चुना वे भाजपा उम्मीदवारों को ही नापसंद करते थे। उन्होंने तो उस सीट से जीते विपक्ष के उम्मीदवार को भी नापसंद ही किया था। उस चुनाव में कुल पड़े मतों में से 1.42 प्रतिशत मत नोटा को मिले थे।
इन मतों की संख्या 5,40,673 थी। इसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में भी 3,40,984 मत नोटा को मिले थे। यह कुल मतदान का .66 फीसद था। विधानसभा के चुनाव में भाजपा के जो उम्मीदवार कम मतों से हारे थे उनमें दमोह से पूर्व वित्तमंत्री जयंत मलैया की चर्चा खूब हुई।
वह 798 मतों के अंतर से हार गए थे जबकि नोटा में इससे काफी अधिक मत डाले गए थे। इस तरह के कई उदाहरण रहे। हारने वाले उम्मीदवार अपनी तसल्ली के लिए यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यदि नोटा में मत नहीं पड़े होते तो वह जीत जाते लेकिन शायद यह एक तर्क है, वास्तविकता नहीं।