सफलता की कुंजी अगर कड़ी मेहनत है तो कड़ी मेहनत की कुंजी क्या है? इस कड़ी मेहनत की कुंजी वह सपना है जो हमें सोने नहीं देता। पूर्व आईएएस अधिकारी जय प्रकाश द्विवेदी की पहली किताब इस सपने को देखने, इसे पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत और अंततः इसे साकार करने की कहानी है। किताब गांव के खेत-खलिहान से बतौर नौकरशाह दिल्ली में सत्ता के केंद्र लुटियंस दिल्ली तक की यात्रा का सफरनामा है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या, सिख-विरोधी दंगों और कश्मीर में आतंकवाद के दौर के बाद चुनाव कराने की चुनौतियों के उल्लेख के साथ किताब के लेखक अंततः दार्शनिक अंदाज में यह प्रश्न भी खड़ा करते हैं कि गांव गंवाकर और शहर को पाकर अंततः व्यक्ति को मिलता क्या है।
इस किताब “कुक्कुड़ूं-कूं” के अजीबोगरीब शीर्षक के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है। बचपन में लेखक ने एक बार हंसी-मजाक में अध्यापक के दराज में मेंढ़क रख दिया। अध्यापक को पता चलने पर उन्हें मुर्गा बनना पड़ा और बांग तक देनी पड़ी। इन घटना से लेखक के मन में पहली बार अपने करियर को लेकर ख्याल आया। लेखक ने बड़े होकर अध्यापक बनने की ठानी क्योंकि जो इंसान तक को मुर्गा बनाने की ताकत रखता हो, उससे ताकतवर दुनिया में कोई और हो भी नहीं सकता। लेखक द्वारा करियर के बारे में सोचने की शुरुआत चूंकि मुर्गा बनने से हुई, इसलिए किताब को “कुक्कुड़ूं-कूं” शीर्षक मिला। इसके बाद किताब लिखने की प्रेरणा के बारे में पूर्व नौकरशाह ने बताया कि अपने सेवाकाल में उन्हें अकसर अपने परिचित युवाओं के ऐसे अनुरोध मिलते कि वह किसी तरह जुगाड़ और शॉर्टकट से उनकी नौकरी लगवा दें। इसके अलावा भी आज युवा अपने सपने पूरे करने के लिए मेहनत करने के बजाय दिग्भ्रमित रहते हैं या अवसाद में पड़े रहते हैं। ऐसे में यह किताब इस उद्देश्य से लिखी गई है कि युवा समझ सकें कि हमारी जिंदगी में आने वाले उतार-चढ़ाव जीवन का हिस्सा होने के साथ-साथ इसका सौंदर्य हैं। इन्हें स्वीकार ही नहीं किया जाना बल्कि इनका आनंद भी लिया जाना चाहिए।
अगर किताब की भाषा शैली और प्रवाह के बारे में बात की जाए तो लेखक का साहित्यिक पृष्ठभूमि से नहीं होना दरअसल एक तरह से अच्छा ही हुआ। इससे किताब की भाषा में अलंकृत शब्दों और सुसंस्कृत अलंकारों की भरमार के बजाय गंवई सादगी दिखती है। अभिधा शैली के उपयोग के चलते बातों को घुमा-फिराकर कहने की बजाय इन्हें सीधे-सीधे पाठकों के सामने रख दिया गया है। किताब में परंपरागत नायक-खलनायक नहीं हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पहले स्नातकोत्तर छात्र, फिर शोधार्थी और फिर आईएएस की तैयारी में कई वर्ष बिताने के चलते गांव के लोग लेखक पर व्यंग्य करते हैं कि आखिर कब तक पढ़ते ही रहोगे, नौकरी करके परिवार का सहारा कब बनोगे तो गांव-देहात जहां पढ़ाई का लक्ष्य ही नौकरी है, यह सीधा और आम सवाल है। इसी तरह नौकरी के दौरान भी अपने बच्चों के प्रति पक्षपात की कोशिश, सख्त अधिकारी और संवेदन हीन प्रशासन ऐसी चीजें हैं जो खलनायक की तरह दिखने के बजाय हम लोगों के बीच रहने वाले आम लोगों जैसे ही लगते हैं। इसी तरह किताब में कोई सुपरमैन नायक को भी गढ़ने का प्रयास नहीं किया गया है। लेखक के संघर्षों को भी बेहद बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताया गया है। लेखक अगर पढ़ाई-लिखाई में मेहनती है तो वह आम बच्चों की तरह शरारतें और ऊधम भी करता है। एक बार लेखक की नासमझी से पूरे इलाके को बिना बिजली के रहना पड़ा और एक बार गांव से होकर गुजरने वाली ट्रेन की आवाजाही में भी बाधा पड़ गई। इसी तरह केंद्र सरकार में अधिकारी बनने के बाद भी लेखक क्रांतिकारी या मसीहा नहीं बनता है, वह अपनी सीमाओं के भीतर रहकर ही तंत्र को जनता के प्रति संवेदनशील बनाने की कोशिश करता है।
लेखक बताते हैं कि उन्होंने यह किताब युवाओं को दिशा देने और कड़ी मेहनत के लिए प्रोत्साहित करने के लिए लिखी है। इस लक्ष्य में उन्हें कितनी सफलता मिलेगी, यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि पाठक साठ-सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश के ग्राम्य जीवन और आम नौकरशाह के जीवन से अवश्य रू-ब-रू होंगे।
प्रेरणा कुमारी, स्वतंत्र पत्रकार