janjati Gaurav Diwas: तीर-धनुष थामे संघर्ष की अग्नि में कूदे और बिरसा से भगवान बने
बिरसा मुंडा ने अपने समाज को नए विचार दिए, अपनी एक उन्नतशील विचारधारा दी तथा धार्मिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए लोगों को मार्ग बताए।
By Ravindra Soni
Edited By: Ravindra Soni
Publish Date: Mon, 15 Nov 2021 11:29:12 PM (IST)
Updated Date: Mon, 15 Nov 2021 11:29:12 PM (IST)
- प्रो. प्रकाश मणि त्रिपाठी
छोटा नागपुर का क्षेत्र आदिवासियों का एक सघन क्षेत्र है। इसी क्षेत्र के एक किसान परिवार में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। आदिवासी जीवन स्वच्छंद और छल-छद्म से रहित था। इनके जीवन का आधार थे- जंगल, जमीन, जल और जंतु। परंतु शोषण की अमानवीय प्रतिक्रिया ने आदिवासी समुदाय की सामाजिक व्यवस्था को जर्जर कर दिया था। इस कठिन समय में इस धरती पर बिरसा मुंडा का आविर्भाव हुआ। शोषण से मुक्ति के लिए उन्होंने उलगुलान का आंदोलन चलाया, जो क्रमश: सामाजिक क्रांति का द्योतक बन गया। इस शोषण प्रक्रिया के प्रमुख अत्याचारी 'दिकु" थे जो बाहर से आकर इस क्षेत्र की वन और धरती संपदा को हड़प लेना चाहते थे। ब्रिटिश शासन इनके साथ था।
दिकु धीरे-धीरे जमींदार, ठेकेदार और जागीरदार बन गए। इस समय न्याय की आशा पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। आदिवासियों के लिए समस्याएं बढ़ती चली जा रही थीं। बिरसा मुंडा ने इन ज्वलंत समस्याओं को समझा और 25 वर्ष का एक युवा मात्र तीर-धनुष थामे संघर्ष की अग्नि में कूद पड़ा। बिरसा के हृदय में यह अग्नि इतनी प्रज्ज्वलित थी कि देखते ही देखते वह मुंडा समुदाय का हृदय-सम्राट बन गया। बिरसा मुंडा केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे। उन्होंने अपने समाज को नए विचार दिए, अपनी एक उन्नतशील विचारधारा दी तथा धार्मिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए लोगों को मार्ग बताए। अपने इस बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही आदिवासी समाज ने उन्हें 'भगवान" की संज्ञा दी। आज भी वे बीर बिरसा, धरती आबा (धरती पिता) और बिरसा भगवान के नाम से याद किए जाते हैं। बिरसा ने जो धार्मिक मत स्थापित किया, बिरसैत धर्म उसे आज भी कई लोग अंगीकार किए हुए हैं। यह धर्म सर्वसमावेशी है और उन्नत विचारों से पुष्ट है।
बिरसा मुंडा का उलगुलान आंदोलन आदिवासियों के शोषण और उनकी अस्मिता पर प्रहार के विरोध में किया जाने वाला विद्रोह था। इस विद्रोह में बिरसा मुंडा कई धरातलों पर युद्धरत हुए। उन्होंने आदिवासियों के परंपरागत सामाजिक ढांचे में पैदा दरारों को भरने का प्रयत्न, दिकुओं द्वारा किए जा रहे अवैध कब्जे का विरोध और लोलुप ठेकेदारों और जमींदारों के अत्याचारों का विरोध किया। बिरसा मुंडा अपने लोगों को अत्याचारों से छुटकारा दिलाने के लिए बलिदानी रूप धर कर सामने आए। अपनी धार्मिक अस्मिता को अखंडित रखने के लिए उन्होंने धर्म उपदेशक का भी रूप धारण किया। बिरसा मुंडा में कबीर पंथियों का अस्तित्व था। स्वासी जाति के कुछ सदस्य वैष्णव धर्म का अनुसरण करते थे। बिरसा ईसाई धर्म से भी कुछ समय तक संबद्ध रहे। मिशनरी भी गए। एक बार जब वे बंदगांव पहुंचे तो उनका संपर्क आनंदपाण नामक व्यक्ति से हुआ जो वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। बिरसा को उनसे पौराणिक गाथाओं का ज्ञान मिला। इस अवधि में बिरसा शाकाहारी बन गए थे। उनमें आध्यात्मिक शक्ति आ गई थी। इस शक्ति से वे लोगों के रोग दूर करने लगे। लोग उनके पास आने लगे और उन्हें भगवान कहा जाने लगा।
1895 तक आते-आते बिरसा धार्मिक आंदोलन के प्रतीक बन चुके थे। धार्मिक प्रवर्तक के रूप में उन्होंने आदिवासी समुदाय को अंधविश्वासों से मुक्ति दिलवाई। इसी समय नया जंगल कानून आ गया। बिरसा का आंदोलन पहले अहिंसक था लेकिन उपदेशक और समाजसेवी के रूप में उनकी लोकप्रियता को देखकर शोषक विचलित हो गए। 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजों ने दमन करने की ठान ली। बिरसैत कहलाने वाले बिरसा के अनुयायियों को यातनाएं दी जाने लगीं। बिरसा मुंडा जंगलों में छिपे रहने लगे। बिरसा के ही कुछ अनुयायियों ने बिरसा पर घोषित 500 रुपये के इनाम के लोभ में बिरसा को कैद करा दिया। 30 मई, 1900 को बिरसा ने जेल में भोजन नहीं किया। वे अस्वस्थ हो गए थे। नौ जून 1900 को क्रांति के इस महानायक की मृत्यु हो गई। स्वतंत्रता के बाद पुनर्जागरण के इस अग्रदूत को भारत सरकार ने उचित सम्मान प्रदान किया। 28 अगस्त, 1998 को भारत के संसद भवन परिसर में तत्कालीन राष्ट्रपति ने बिरसा मुंडा की मूर्ति का अनावरण किया और उन्हें असाधारण लोकनायक की संज्ञा दी और एक साधारण युवा से भगवान बन गए।
(लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विवि, अमरकंटक के कुलपति हैं)