पूरे देश में 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी को राजभाषा नहीं, बल्कि राष्ट्रभाषा का स्थान मिलना चाहिए परंतु आजादी के 75 वर्ष होने के बावजूद हिंदी अपना सही स्थान नहीं पा सकी है। आज हिंदी दिवस के अवसर पर पत्रकार प्रेरणा कुमारी के साथ पद्मभूषण से सम्मानित और किसानों के पक्षधर नेता हुकुमदेव नारायण यादव के साथ खास बातचीत।
भारत दरअसल विश्व का अकेला अनोखा ऐसा देश है जिसके पास अपनी सैकड़ों भाषाएं होने के बावजूद सरकार-प्रशासन चलाने के लिए विदेशी भाषा पर निर्भर है। इस विसंगति की नींव दरअसल स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही रख दी गई जब राजभाषा के प्रश्न पर संविधान में सीधे हिंदी को राजभाषा बनाए जाने के बजाय इसकी जगह अंग्रेजी को दी गई। संविधान के अनुच्छेद 343 में एक तरफ हिंदी को देश की राजभाषा का दर्जा दिया गया, वहीं इसके साथ ही अंग्रेजी को भी इसके बराबर बिठा दिया गया। इस तरह देश में लोकतंत्र आया लेकिन लोकभाषा नहीं आ पाई।
आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाले महात्मा गांधी सार्वजनिक जीवन में सरल या आम जनमानस में प्रचलित हिंदी का उपयोग करते थे। वह संपर्क भाषा के रूप में हिंदी को अपनाए जाने के पक्षधर थे। इसलिए संविधान बनाए जाने के दौरान हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाया गया लेकिन इस संविधान के आधार पर सरकार चलाने वाले सरकार चलाने वाले जवाहर लाल नेहरू अंग्रेजी संस्कृति, अंग्रेजी संस्कार और अंग्रेजी मानसिकता से प्रभावित थे। उनके बारे में डाक्टर लोहिया ने अपनी किताब में लिखा है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंतिम वायसराय भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू थे।
ऐसे में राजभाषा का प्रश्न आने पर नेहरू ने त्रिभाषा फॉर्मूला दिया। इसका मतलब है कि केंद्र से राज्यों को होने वाले पत्र-व्यवहार में अंग्रेजी, हिंदी और राज्य में प्रचलित भाषा का उपयोग किया जाएगा। इसके बजाय हिंदी और राज्य की प्रचलित भाषा दो ही भाषाओं का उपयोग किया जाना चाहिए था। इसके साथ ही राजभाषा के रूप में हिंदी को लागू किए जाने को टाला गया और यह टालमटोल अब तक जारी है।
स्वतंत्रता के समय नौकरशाही में भी चूंकि अंग्रेजी मानसिकता के ही लोग मौजूद थे, उन्होंने भी हिंदी के बजाय अंग्रेजी को बरकरार रखना पसंद किया। स्वतंत्रता मिलते ही अगर हिंदी को प्रभावी रूप से अपना लिया जाता तो पूरे देश में कहीं विरोध नहीं होता। बाद में राजनीतिक कारणों से अलग-अलग जगहों पर भाषा विवाद खड़ा किया गया।
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आज केंद्र सरकार के स्तर पर हिंदी के प्रोत्साहन के लिए प्रामाणिक प्रयास किए जा रहे हैं। बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक तक अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की थी। इस दिशा में आगे भी काम किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि हिंदी में भी ज्ञानार्जन के वही सब संसाधन उपलब्ध रहें जो अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। आज स्थिति यह है कि अगर कोई अंग्रेजी में पारंगत नहीं है तो वह अन्य विषयों में बेशक टॉपर भी हो, उसकी मेधा व्यर्थ है।
इसी तरह हमारे न्यायालयों में भी हिंदी को समुचित स्थान मिलना चाहिए। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध होंगे हालांकि जरूरत इस बात की है कि वकीलों और वादियों को न्यायालय में अपनी भाषा में बहस करने और अपनी बात रखने की अनुमति मिलनी चहिए।
अंग्रेजी की दीवार के कारण देश के आम लोग जब न्यायालयों के कामकाज को समझ ही नहीं पाते तो न्यायालयों ऑनलाइन बहस जैसी पहलें बेमानी हैं। यह ऐसा ही मानो किसी के हाथ-मुंह बांधकर उसके सामने दुनिया भर के व्यंजन खाने के लिए रख दिए जाएं।
अंग्रेजी को अपनाकर अभिजात्य वर्ग दरअसल देशज भाषाएं बोलने वाले करोड़ों लोगों को बड़े पदों और उच्च शिक्षा से बाहर रखना चाहता है। डॉ. लोहिया के समय हम सब नारा लगाते थे, “गांधी-लोहिया की अभिलाषा, चले देश में देशी भाषा; अंग्रेजी में काम न होगा, अंग्रेज यहां से चला गया, अंग्रेजी को भी जाना है”।
जरूरत इस बात की है कि विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले युवक संगठित हों और देशज भाषाओं में शिक्षा एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए शांतिपूर्ण तरीके से असहयोग या विरोध-प्रदर्शन का मार्ग अपनाएं। उन्हें यह मांग करनी चाहिए कि वे लोकतंत्र में लोकभाषा चाहते हैं।
राजनीतिक कारणों से कुछ नेता हिंदी का विरोध करते हैं, दरअसल वे भी हिंदी विरोध के नाम पर अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को उपेक्षित रखकर अंग्रेजी थोपने की साजिश रच रहे हैं। भारत के प्रत्येक राज्य में स्थानीय या मातृभाषा में पढ़ाई होनी चाहिए। बच्चों को कर्नाटक में कन्नड़, केरल में मलयालम और आंध्र प्रदेश-तेलंगाना में तेलुगु में पढ़ाया जाना चाहिए।
प्रेरणा कुमारी, पत्रकार