भारत और इंडिया में बीच छिड़ी जंग प्रत्यक्ष रूप से सभी के सामने है, लेकिन इस विषय के पीछे छिपे देश के मूल लक्ष्य पर किसी की नजर नहीं है. हम शून्य गरीबी, शून्य भुखमरी, क्वालिटी एजुकेशन, जेंडर इक्वालिटी जैसे सतत विकास लक्ष्यों को भूलकर, राजनीतिक के एक ऐसे सूत्र का शिकार हो रहे हैं, जिसका उद्देश्य ही सामान्य नागरिक को मूल मुद्दों से भटकाना है. आजादी के सात दशक बीत गए लेकिन एक खुशहाल विश्व की दृष्टि से एसडीजी लक्ष्यों को धरातल पर लाने वाले यूएन के मुताबिक, भारत या इंडिया (देश का सबसे ज्वलंत मुद्दा) में आज भी 22.4 करोड़ लोगों के पास एक वक्त की रोटी नहीं है. नीति आयोग द्वारा जारी पिछले साल की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 25 प्रतिशत आबादी गरीबी की मार झेल रही है, यानि देश की कुल जनसंख्या का हर चौथा व्यक्ति गरीबी में जीवन यापन करने पर मजबूर है.
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में 6-13 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 60 लाख बच्चे स्कूल ही नहीं जाते हैं, और वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ताजा रिपोर्ट ये भी दिखाती है कि लैंगिक समानता के मामले में भारत या इंडिया की स्थिति 146 देशों की सूची में 127वें पायदान पर बेहद दयनीय बनी हुई है.
उपरोक्त उदाहरण सिर्फ चार विषयों को लेकर हैं, लेकिन ऐसे तीस अन्य विषय हो सकते हैं जो वास्तव में चिंतन-मंथन का मुद्दा हैं लेकिन अफ़सोस वे टीवी डिबेट्स में कभी जगह नहीं बना पाते. चूंकि इन विषयों में भारत या इंडिया का असल मुद्दा छिपा है, लिहाज़ा ऐसे विषयों का जिक्र भी राजनेताओं के लिए निषेध माना जाता है और शायद इसीलिए एक के बाद एक मुद्दे, जो यक़ीनन चर्चा का विषय बनने लायक भी नहीं हैं, रणनीतिक ढंग से प्राइम टाइम में आपके सामने परोस दिए जाते हैं.
जाहिर है राजनीति में कथनी और करनी, समय और माहौल को देखकर एक्शन लेती है, इसलिए यह भी उम्मीद की जा सकती है कि 2030 तक देश में सतत विकास लक्ष्यों को छोड़कर दूसरे सभी बेमेल मुद्दे आपके सामने आते रहें और एसडीजी लक्ष्यों को कई और सालों के लिए टाल दिया जाएगा. मैं समझता हूं कि फिलहाल भारत हो या इंडिया, जो भी निर्णय हो वो जनता के मत से हो, और जनता का मत राजनीतिक न होकर खुद के लिए हो. आम मतदाता आज यह प्रश्न करने की स्थिति में भले न हो कि आखिर क्यों सिर्फ सियासी लाभ के लिए, बीजेपी-कांग्रेस द्वारा देश का नाम इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन अपने मत से जवाब देने की स्थिति में जरूर है.
मैं मानता हूं कि देशवासी भारत और इंडिया के बीच का सियासी फेर अच्छे से समझ रहे हैं, लेकिन संशय में है क्योंकि दोनों ही प्रमुख दलों के राज में भारत सबसे गरीब लाचार लोगों की रैंकिंग में नीचे से शीर्ष पर पहुँच गया है. समाज हिन्दू-मुस्लिम के फेर से निकलने के प्रयास में मणिपुर-मेवात जैसी परिस्थितियों का सामना करने पर मजबूर है. उग्रता और कट्टरता आम धारणा बनती जा रही है.
एक आम नागरिक के तौर पर हमें खुद से सवाल करने की जरुरत है कि हम देश चलाने के लिए कैसे नेतृत्व का चुनाव कर रहे हैं. समस्या जटिल है क्योंकि राजनीति से प्रेरित है, लेकिन एक राजनीति ही है जो इस समस्या का हल भी है, यदि राजनेता इधर उधर के मुद्दों की बजाए, सतत विकास लक्ष्यों को केंद्र में रखकर कार्य करने लगें तो शायद राजनीति से नाजायज विषयों से देश को बरगलाने की नीति का ही अंत हो जाए, और भारत या इंडिया को एक आदर्श सफल राष्ट्र बनने, या विषय गुरु बनने में अधिक समय न लगे...एक बार सोचियेगा जरूर...
अतुल मलिकराम (राजनीतिक रणनीतिकार)