"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय"
संत कबीर दास जी के इस दोहे से हर कोई परिचित होगा। इस दोहे के माध्यम से उन्होंने संसार के सार को पेश करके हम सबके सामने रख दिया है कि शायद कभी न कभी हम इसके मोल को समझेंगे। उनका इस दोहे से आशय था कि जब मैंने (इंसान ने) इस संसार में बुरे लोगों को खोजा, तो मुझे कोई भी बुरा व्यक्ति नहीं मिला। लेकिन जिस दिन अपने अंदर झाँका (अपनी अंतरात्मा में खोजा) तो इस संसार में मुझसे बुरा और कोई नहीं था।
मैं हर क्षण, हर समय 'इसने यह कर दिया', 'उसने वह कर दिया', उसे ऐसा नहीं करना था', 'वह ऐसा कर कैसे सकता है', 'वह कितना बुरा व्यक्ति है', 'उसकी सोच खराब है', 'सारी गलती उसी की है', 'मैं करता तो गलती नहीं होती' की उलाढाली में लगा रहा। यहाँ 'मैं' का आशय हर उस इंसान से है, जो जीवनभर अपने आप को सही और किसी दूसरे को गलत ठहराने की उधेड़बुन में लगा रहता है।
किनारे होता जाता है हर उस रिश्ते के, जिस पर उँगलियाँ उठाने वह दौड़ता है। यह तो होना ही है, क्योंकि यदि आप हार नहीं मान रहे, तो सामने वाले पक्ष से हार मान लेने की उम्मीद आखिर कर भी कैसे सकते हैं? यही कारण है कि ऐसे लोगों से सबसे पहले उसके अपने ही दूर होते हैं। हमेशा दूसरों में बुराई देखने की प्रवृत्ति वाला इंसान कभी किसी को अपना स्वीकार नहीं कर सकता, इसके चलते अपना मानने वाले उसके सच्चे मित्र भी उससे दूरी बना लेते हैं।
जब व्यक्ति खुद से मिलता है या खुद को जानने की कोशिश करता है, तो उसे पता चलता है कि अच्छाई और बुराई दोनों उसके ही भीतर है, उसे बाहर खोजने की कोई जरुरत नहीं है। स्वभाव से इंसान अंतर्मुखी कम और बहिर्मुखी अधिक होता है, यही वजह है कि अपनी अंतरात्मा में झाँकने के बजाए दूसरों की कमियों को कुरेदने में अधिक विश्वास रखता है। इसे दोगली सोच करार दिया जाए, तो भी कम नहीं होगा कि वह प्राय: वह खुद को सबसे अच्छा समझता है और दूसरों को सबसे बुरा।
बुरा देखने की प्रवृत्ति जिस इंसान में है, वास्तव में बुराई उसी में है कि वह दूसरों में अच्छा नहीं देख पा रहा। जैसा कि मैंने कहा, स्वभाव से इंसान में अच्छाई और बुराई दोनों के भाव विद्यमान रहते हैं, लेकिन यह देखने वाले पर निर्भर करता है कि वह किसे देखना पसंद करता है। दूसरों में कमियाँ ढूँढना सज्जनों का काम नहीं है। बुराई की जगह सामने वाले की सबसे अच्छी बात या गुण को देखना शुरू किया जाए और उसे अपने स्वभाव में उतारने की आदत डाली जाए, तब तो बात बने।
अपने इस स्वभाव के कारण इंसान न सिर्फ अपनी चंद खूबियों का बखान करता रहता है, बल्कि दूसरों को उसकी कमियाँ दिखाकर नीचा भी दिखाता रहता है, ऐसा करके उसे अपार संतुष्टि और आत्म सुख मिलता है। कबीर दास जी ने इंसान के इस दोगलेपन को एक अन्य दोहे के माध्यम से दर्शाने की कोशिश की है।
"दुर्जन दोष पराए लखि चलत हसंत हसंत
अपने दोष ना देखहिं जाको आदि ना अंत"
इसके अर्थ कि यदि मैं बात करूँ, तो यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हँसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते, जिनका न आदि है न अंत।
कुल मिलाकर, दूसरों पर दृष्टि गड़ाए रखने वाले लोग दुष्ट प्रकृति के होते हैं। दूसरों की बुराई देखने की इस प्रवृत्ति के कारण इंसान दूसरों का ही नहीं, बल्कि अपना भी अहित करता रहता है। इसलिए, दूसरों को पढ़ने के बजाए खुद को पढ़ना सीखें और साथ ही दूसरों की अच्छी बातों और गुणों को अपने भीतर उतारने की कला सीखें।
- अतुल मलिकराम (लेखक)