एक नवयुवक नकारात्मक विचारों से घिरा रहता था। उसे लगता कि वह अनाकर्षक है, कोई उसे पसंद नहीं करता और जिस लड़की से विवाह करना चाहता है, वह भी हाथ से निकल जाएगी।
ऐसी नकारात्मक सोच का उसके काम पर भी असर पड़ा और उसने नौकरी छोड़ दी। वह स्नायु रोग से पीड़ित हो गया। वह पूर्णत: भयग्रस्त हो चुका था और ज्यादातर अकेला रहना पसंद करता। ऐसे में किसी शुभचिंतक ने उसे हिल स्टेशन पर जाने की सलाह दी कि शायद बदले माहौल से उसे कुछ सहायता मिले।
उसे भी यह सलाह जंच गई। जब वह शहर से बाहर जाने के लिए निकलने लगा तो उसके पिता ने उसे एक पत्र दिया और कहा कि वह इसे अपने गंतव्य स्थल पर पहुंचकर ही खोले। जब वह नवयुवक हिल स्टेशन पर पहुंचा तो वहां यात्रियों का खासा जमघट लगा था। उसे किसी होटल में जगह नहीं मिली और हारकर वह एक गैराज में ठहर गया। वह यहां आ तो गया था, किंतु यहां भी खुद को बेहतर महसूस नहीं कर पा रहा था।
तभी उसे अपने पिता द्वारा लिखे पत्र की याद आई। उसे पत्र खोला। उसमें लिखा था - 'बेटा, तुम घर से 1500 मील दूर हो, तथापि अपनी यहां की तथा वहां अवस्था में कोई अंतर नहीं पाते। है न? मैं जानता था कि तुम्हें वहां भी शांति नहीं मिलेगी, क्योंकि तुम अपने साथ वहां भी वही वस्तु ले गए, जो तुम्हारे क्लेष का कारण है। वह है तुम्हारी विचारधारा। तुम्हारे शरीर अथवा मस्तिष्क में कहीं कुछ भी नहीं बिगड़ा है।
न परिस्थितियों ने तुम्हें दूध की मक्खी बना रखा है। परिस्थिति विषयक तुम्हारी विचारधारा ही तुम्हारे दु:ख का मूल कारण है। मनुष्य अपने मन में जैसा सोचता है, वैसा ही होता है। तुम्हें जब यह ज्ञान हो जाए तो घर लौट आना। तुम अपने आप अच्छे हो जाओगे।" पत्र पढ़कर युवक के मन का सारा विकार घुल गया। वह जीवन में पहली बार स्पष्ट और विवेकपूर्ण ढंग से सोचने लगा। इससे उसे एहसास हुआ कि वह अब तक कितना गलत था।
वह सारे संसार और उसके हर प्राणी को बदलना चाहता था, जबकि जरूरत इस बात की थी कि वह अपने विचार तथा दृष्टिकोण को बदलता। अगले ही दिन वह युवक घर लौटा और जल्द ही उसने नौकरी पर जाना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में उसने मनचाही लड़की के साथ विवाह भी कर लिया।
इस तरह विचारधारा बदलने के साथ ही उसकी पूरी दुनिया बदल गई और वह अपने जीवन में सुखी रहने लगा।