"देखना चाहा न अपना भार कितना ? और कलियों में चटक श्रृंगार कितना ? चल रहे दो पैर जिस विश्वास में कर्म का निर्वाह थकती सांस में दे चुके सर्वस्य यह जीवन त्याग में डूब कर मिलजुल सजल अनुराग में।"
किसी विद्वान कवि की यह पंक्तियां मानो डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव के लिए ही लिखी गई हैं,जो कि उनके व्यक्तित्व को उजागर करती हैं । 1 सितंबर 1916 को डॉ. श्रीवास्तव का जन्म कटनी जिले के पीपल के वृक्षों से घिरे हुए गाँव "पिपरहटा" में हुआ। चूंकि आपके पिताश्री प्यारेलाल श्रीवास्तव कटनी में ही शासकीय सेवा में थे अतः आप की प्रारंभिक शिक्षा कटनी में हुई। शिक्षा के प्रति गहन रुचि और परिश्रमी स्वभाव ने उन्हें उच्च शिक्षा हेतु जबलपुर आने बाध्य कर दिया। शिक्षा प्राप्ति के साथ आपने लेखन कार्य भी जारी रखा।
नागपुर विश्वविद्यालय से आपने हिंदी विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा मेरिट में पास की। बुंदेली भाषा के अटूट प्रेम ने ही आपको 'बुंदेली लोक साहित्य' पर शोध कार्य हेतु प्रेरित किया। जबलपुर विश्वविद्यालय के इतिहास में 'बुंदेली साहित्य' पर यह प्रथम शोध था। डॉ. श्रीवास्तव ने जबलपुर के सर्वाधिक प्राचीन शिक्षा संस्थान हितकारिणी महाविद्यालय में प्राध्यापकीय कार्य किया एवं प्राचार्य पद को भी सुशोभित किया। उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय के एम.ए. के पाठ्यक्रम में 'लोक- साहित्य' को एक विषय के रूप में सम्मिलित कराया । आपके निर्देशन एवं मार्गदर्शन में अनेक शोधार्थियों ने 'विद्यावाचस्पति' की उपाधियां प्राप्त कीं।
डॉक्टर श्रीवास्तव एक श्रेष्ठ शिक्षक थे। वे अपने विद्यार्थियों के अंतस से सदैव जुड़े रहे। उनके विद्यार्थी उन्हें अपना सच्चा हितैषी एवं पथ प्रदर्शक मानते थे। देश- प्रदेश को उन्होंने संस्कारवान एवं ख्यातिलब्ध शिष्य प्रदान किए । जिनमें प्रमुख रूप से रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति एवं अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉ शिव प्रसाद कोष्टा, प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. जे.पी. शुक्ला, आध्यात्म गुरु स्वामी प्रज्ञानंद जी, पूर्व राज्यपाल निर्मल चंद जैन, पूर्व महाधिवक्ता एड .राजेंद्र तिवारी, पूर्व महापौर जबलपुर शिवनाथ साहू, मानस मर्मज्ञ डॉ.रामदयाल कोष्टा "श्रीकांत", पूर्व मंत्री मध्यप्रदेश राजबहादुर सिंह ठाकुर आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
यद्यपि डॉ. पूरनचंद जी की लोक साहित्य, संस्कृति एवं लोक विज्ञान में विशेष रुचि थी किंतु उनकी कलम भूगोल, सामाजिक विज्ञान, प्रकृति के सौंदर्य, पर्यावरण, व्रत व त्यौहारों, विभिन्न व्यक्तित्व और उनके कृतित्व, आत्मकथा, बाल साहित्य के साथ-साथ अन्य विषयों पर भी खूब चली। 'यदि ये बोल पाते' के रूप में उन्होंने चेतन बोध कराने वाली अद्भुत कथाएं भी लिखीं, जिसमें वृक्षों, पक्षियों, पत्थरों आदि के भावों को सुंदर शब्दों में व्यक्त कर अनोखा सृजन किया। 'भौंरहा पीपर' ,'रानी दुर्गावती खण्ड-काव्य', 'यदि ये बोल पाते' आदि उनकी अत्यंत ही चर्चित बुंदेली-हिंदी रचनाएं हैं।
बुंदेली लोक साहित्य का अध्ययन, उनकी समालोचनात्मक व्याख्या, बुंदेली शब्द भंडार का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन,बुंदेली शब्द भंडार के स्रोत, बुंदेली शब्दकोश, संस्कृत की कहावतों और मुहावरों का बुंदेली कहावतों और मुहावरों पर प्रयोग, लोक साहित्य और परिनिष्ठित साहित्य का पारस्परिक संबंध आदि आदि उनकी प्रमुख और प्रतिष्ठित रचनाएं हैं । 'बुंदेली साहित्य' पर सम्भवतः इतना अधिक कार्य किसी ने नहीं किया ।
आपने बुंदेली-साहित्य का न केवल संरक्षण किया वरन उसका संवर्धन कर उसे क्षितिज तक पहुँचाने का प्रयास भी किया। लेखन के साथ-साथ नागपुर, जबलपुर भोपाल के आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्र द्वारा उनकी कविताओं, लेखों और वार्ताओं का समय-समय पर प्रसारण होता रहा। अनेक गायक-गायिकाओं ने उनके लिखे बुन्देली गीत गाए जो आज भी पसंद किए जाते हैं । अनेक गौरवशाली संस्थाओं ने संस्कारधानी के इस 'गौरव- पुरुष' को सम्मानित किया। बुंदेली साहित्य के उनके इस अनुपम और अद्वितीय महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही उनके जन्मदिवस 01 सितम्बर को 'बुंदेली दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी बहुआयामी व्यक्तित्व वाले डॉ पूरनचंद श्रीवास्तव अक्खड़-फक्कड़ प्रवृत्ति के माने जाते थे, किंतु वे अत्यंत सहृदय और सर्वप्रिय थे। वे आत्मवंचना एवं आत्मप्रदर्शन से सदैव दूर रहे । ग्रामीण परिवेश, वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को बड़ी खूबी के साथ उन्होंने शब्दों में उकेरा। अनुपम कृति "भौंरहा पीपर" की अविस्मरणीय पंक्तियों में उनका लेखन बड़ा अद्भुत और मर्मस्पर्शी जान पड़ता है। जिसमें उनके गांव का पीपल अपना इतिहास बताता है-
"मैं पीपर को बिरछ, गांव में अबलौं एक खडो हों,
बहुत दिना भए बीरन सें,अकबर सें तनक बड़ो हों।"
प्रेम-उल्लास से भरे बुंदेली तीज-त्यौहारों का वर्णन आपकी कविताओं में बड़ी सरसता के साथ देखने को मिलता है। दूसरी ओर वीर-रस से भरी कविताएं जिसमें "वीरांगना रानी दुर्गावती" (खंडकाव्य) अत्यंत ही चर्चित और रोमांचित करने वाला बुंदेली खंडकाव्य है -
"चली प्रलय से जूझन रानी रणचंडी अकुलाई ।
गंग-यमुन उत उठीं हिलौरें, इत रेवा उमड़ाई।।"
सदैव संतुष्ट दिखाई देने वाले डॉ. श्रीवास्तव जी के जीवन में संघर्ष और बाधाएं भी आईं, किंतु उन्होंने न केवल उन बाधाओं, कंटकों को हटाया वरन लोगों को भी साहस और धीरज का पाठ पढ़ाया। उनकी एक कविता की बानगी देखिए-
"साहस ही सम्बल है,
धीरज धर भरिए डग..
करिए सब काम।"
डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव जी प्राध्यापक होते हुए भी उपदेश देने पर विश्वास नहीं रखते थे वरन उनका व्यक्तित्व ही उपदेश था। उनका आंतरिक मन जितना मानवीय गुणों से श्रृंगारित था बाह्य स्वरूप उतना ही सादगी पूर्ण और आडंबर रहित था । उनकी स्मृति कर्म और कर्तव्य का बोध कराती है। डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव साहित्य के ऐसे अमिट हस्ताक्षर हैं, जिन्हें भूल पाना नामुमकिन है। व्यक्ति अपने व्यक्तित्व से सुरभित होता है और व्यक्तित्व,कृतित्व से। अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के कारण उन्हें याद किया जाता रहेगा। हर बार,और बार-बार ..... कहा गया है -
"ए अज़लआदमी दुनिया से गुजर सकता है
पर कारनामा तेरे मारे नहीं मर सकता..।"
- डॉ. वंदना पांडेय दुबे, प्राचार्य, सी.पी. महिला महाविद्यालय, जबलपुर