-आरती जेरथ
नई सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक पास कराने का वादा जरूर किया है, लेकिन अतीत के अनुभवों को देखते हुए भरोसा करना मुश्किल लगता है कि ऐसा हो सकेगा। नरेंद्र मोदी से पहले तीन प्रधानमंत्री इस विधेयक को पास कराने की नाकाम कोशिश कर चुके हैं और उनकी नाकामी की वजह थी सामंती मानसिकता वाली तीन स्त्रीविरोधी पार्टियों सपा, राजद और जदयू की जिद। बुधवार को लोकसभा में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस विधेयक को पारित करवाने को लेकर भले ही जोर-शोर से भाजपा की प्रतिबद्धता को रेखांकित किया हो, लेकिन अतीत की घटनाओं को देखते हुए हमारे सामने आशान्वित होने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है।
सबसे बड़ी बाधा तो यही है कि अब हमें नए सिरे से पूरी प्रक्रिया शुरू करना होगी। चार साल पहले 9 मार्च 2010 को राज्यसभा में यह विधेयक पारित हुआ था और फिर इसे लोकसभा में बहस के लिए भेजा गया था। लेकिन अनेक कारणों के चलते लोकसभा में इस पर बात ही नहीं हो सकी। आम चुनावों से पहले जब 15वीं लोकसभा भंग हुई तो महिला आरक्षण विधेयक भी दर्जनों अन्य लंबित विधेयकों के साथ ही समाप्त हो गया। अब मोदी सरकार को एक नया महिला आरक्षण विधेयक प्रस्तुत करना होगा और उसे संसद के दोनों सदनों से पास करवाना होगा।
इस बात को लेकर तो आश्वस्त हुआ जा सकता है कि लोकसभा में यह विधेयक पास हो जाएगा। हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में 'मंडल पार्टियों" का लगभग सफाया होने के बाद लोकसभा का राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल गया है। यही कारण है कि आज महिला आरक्षण विधेयक के धुर विरोधियों के पास लोकसभा की कुल 543 में से एक दर्जन से भी कम सीटें रह गई हैं। सपा और राजद के पास चार-चार सीटें हैं और जदयू के पास दो ही सीटें हैं। दूसरी तरफ, भाजपा के पास न केवल बहुमत है, वह इस बात को लेकर भी निश्चिंत हो सकती है कि इस विधेयक को पास कराने में उसे कांग्रेस सहित अन्य क्षेत्रीय दलों का सहयोग मिलेगा। याद रहे कि दो प्रमुख क्षेत्रीय दलों अन्नाद्रमुक और तृणमूल कांग्रेस का नेतृत्व महिलाओं के हाथों में ही है।
दिक्कत राज्यसभा में आ सकती है। राज्यसभा आज भी वैसी ही नजर आती है, जैसी कि चार साल पहले थी, जब मनमोहन सिंह सरकार को यह विधेयक पारित करवाने के लिए लगभग बलप्रयोग करने पर मजबूर होना पड़ा था। वह एक कुरूप दृश्य था और राजनीतिक पार्टियां उसे अब दोहराना नहीं चाहेंगी। तब जदयू, राजद और सपा के सांसदों ने हंगामा खड़ा कर दिया था और वे विधेयक को पटल से हटाने की मांग पर अड़े हुए थे।
आखिरकार प्रदर्शन कर रहे सांसदों को बलपूर्वक हटवाया गया था और उनके स्तब्ध साथियों ने भारी कोलाहल के बीच आनन-फानन में विधेयक को पारित करने की मंजूरी दी थी। संसद में इस तरह का नजारा इससे पहले कभी नहीं देखा गया था और कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही नेताओं ने बाद में निजी चर्चाओं में कहा था कि उन्हें दु:ख है कि उनके साथी सांसदों को बलपूर्वक संसद से हटवाने की नौबत आ गई थी।
अफसोस की बात है कि राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक की विरोधी पार्टियों के पास आज भी इतनी ताकत है कि यदि वे चाहें तो 2010 वाला दृश्य फिर से दोहरा सकती हैं। बस चंद तुनकमिजाज सांसदों द्वारा ऐसा ठान लेने भर की देर है। सवाल उठता है कि क्या मोदी सरकार इसके लिए तैयार रहेगी? देश की संसद से उम्मीद की जाती है कि वह राज्यों की विधानसभाओं के सामने उत्कृष्ट और संयमित व्यवहार का आदर्श प्रस्तुत करेगी, ऐसे में क्या नई सरकार संसद में कोलाहल और बलप्रयोग के दृश्य को फिर से दोहराना पसंद करेगी?
बहरहाल, भले ही यह एक जोखिम हो, लेकिन संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के अधिक सशक्त प्रतिनिधित्व की आज जितनी जरूरत है, उतनी पहले कभी नहीं थी। पहले दिल्ली में निर्भया कांड और फिर उत्तर प्रदेश के बदायूं में हुई घटना ने शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की सुरक्षा की चिंतनीय स्थिति की हकीकत उजागर कर दी है। बदायूं की घटना बताती है कि निर्भया कांड के बाद उमड़े जनांदोलन और एक अधिक कठोर बलात्कार-विरोधी कानून बनाए जाने के बावजूद कुछ भी नहीं बदला है। ऐसे में यह सशक्त संदेश देने का समय आ गया है कि हालात अब बदलने ही चाहिए। और महिलाओं के हाथों में अधिक राजनीतिक ताकत सौंपने के अलावा इसका और क्या बेहतर उपाय हो सकता है?
एक लंबे समय से पितृसत्तात्मक व्यवस्था ही महिलाओं के निर्णय लेती रही है और उनके भाग्य का निर्धारण करती रही है। यहां तक कि महिलाओं के हित में बनाई जाने वाली नीतियों और कानूनों में भी उनकी आवाज नहीं सुनी जाती। यह विडंबना ही है कि देश की आबादी का आधा हिस्सा होने के बावजूद मौजूदा लोकसभा में महिलाओं की उपस्थिति महज 11 प्रतिशत ही है। सालों से इस आंकड़े में ज्यादा बदलाव नहीं आया है।
महिलाओं का सशक्तीकरण एक लंबी प्रक्रिया है और इसमें समय लगेगा, लेकिन इतना तो तय है कि संसद और विधानसभा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से इस लक्ष्य को अर्जित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया जा सकेगा। अध्ययनों से पता चलता है कि पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण दिए जाने से उनके प्रति समाज की धारणा में खासा बदलाव आया है और स्त्री-शिक्षा के प्रति भी रुझान बढ़ा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास एक ऐतिहासिक मौका है कि वे हमारे राजनीतिक जीवन में मौजूद असंतुलन की स्थिति को समाप्त कर दें। यदि वे महिला आरक्षण विधेयक पास करवा सके तो वे सामंती और स्त्रीविरोधी मानसिकता पर जोरदार प्रहार करने में सफल रहेंगे। लेकिन उन्हें देरी नहीं करना चाहिए। अभी वे अपने राजनीतिक जीवन के चरम पर हैं, जबकि उनके विरोधी पस्त हैं। उन्हें अपने सुपरिचित राजनीतिक कौशल का परिचय देते हुए गर्म लोहे पर चोट करना चाहिए और संसद के दोनों सदनों से यह विधेयक पास करवा लेना चाहिए।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)