MP Election 2023 Results: सद्गुरु शरण। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव का परिणाम चार-पांच महीने बाद प्रस्तावित लोकसभा चुनाव के लिए बड़ा संदेश है। मतदाताओं ने स्पष्ट कर दिया कि जाति-धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले दलों को अब इस गंदी प्रवृत्ति से बाज आ जाना चाहिए। मतदाताओं ने सुशासन, राजनीतिक स्थायित्व, विकास और राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानकर मतदान किया। मप्र ओबीसी बहुल राज्य है लेकिन यहां के मतदाताओं ने कांग्रेस के जातिवार गणना के झुनझुने को जिस तरह नकार दिया, उसका प्रभाव लोकसभा चुनाव में बिहार और उत्तर प्रदेश सहित तमाम राज्यों में नजर आएगा। जन कल्याणकारी सुशासन, विकास और राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस की रणनीति के लिए बड़ा झटका है।
शिवराज सिंह चौहान यानी मध्य प्रदेश के जगत मामा। खुद भाजपा नेतृत्व नहीं चाहता था कि यह चेहरा चुनाव में ज्यादा चमके। शायद किसी सर्वे में नेतृत्व को यह समझाया गया था कि पिछले करीब 18 वर्षों से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को लेकर जबर्दस्त एंटी-इनकम्बेंसी है। इसे सच मानकर पार्टी ने उन्हें थोड़ा पीछे खींचा। सभा मंचों पर उनकी उपेक्षा की। मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं बनाया। मुख्यमंत्री पद के कई अन्य दावेदार मैदान में खड़े कर दिए। इसके बावजूद शिवराज ने हार नहीं मानी।
जब भाजपा और कांग्रेस के नेता बंद कमरों में बैठकर रणनीति बना रहे थे, तब शिवराज मध्य प्रदेश के गांव-गांव जाकर मतदाताओं के पांव पखार रहे थे। लाड़ली बहनों के दुलार में गीत गा रहे थे और उनकी आरती उतार रहे थे। आदिवासियों के बीच नाच रहे थे। झोपड़ियों में जाकर गरीबों के साथ खाना खा रहे थे। औपचारिक चुनाव अभियान से महीनों पहले उन्होंने भोर पांच बजे से देर रात एक बजे तक परिश्रम की दिनचर्या अपनाकर भाजपा को सत्ता में वापस लाने की जो जिद ठानी, वह उसे पूरा करके ही रुके।
यकीनन मध्य प्रदेश के चुनाव परिणाम पर शिवराज सिंह का सर्वाधिक प्रसन्न और संतुष्ट होना लाजिमी है। यह सिर्फ भाजपा की नहीं, शिवराज सिंह के अपने वजूद की भी जीत है। वह यूं भी देश के वरिष्ठतम राजनेताओं में शुमार हैं, इस परिणाम ने उनका कद कई गुना बड़ा कर दिया। इसमें दो राय नहीं कि भाजपा ने मध्य प्रदेश चुनाव को जीने-मरने की वजह मानकर बेहद सुनियोजित ढंग से एक टीम के तौर पर लड़ा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पार्टी के चुनाव अभियान को फ्रंट से लीड किया। उनकी इस रणनीति से नेता और कार्यकर्ता संगठित एवं उत्साहित हुए। इसके बावजूद इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि शिवराज सरकार की लाड़ली बहना योजना ही अंतत: गेमचेंजर साबित हुई। भाजपा की चुनावी सभाओं में महिलाओं की सपरिवार भागीदारी इसका संकेत दे रही थी। इसके अलावा शिवराज सिंह की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि उन्होंने अपनी योजनाओं में समाज के सभी वर्गों के प्रति समभाव रखकर कांग्रेस का जाति-कार्ड नहीं चलने दिया। बिहार में जाति आधारित गणना के बाद मध्य प्रदेश का चुनाव इसका लिटमस टेस्ट था जिसमें यह कार्ड पूरी तरह फ्लाप साबित हो गया।
जाहिर है कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए ओबीसी मुद्दे को ट्रंप कार्ड मान रहा भाजपा विरोधी गठबंधन अब अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने को बाध्य होगा। कहने की बात नहीं कि मिशन-2024 की रणनीति तैयार करते वक्त भाजपा नेतृत्व मध्य प्रदेश माडल को जरूर सामने रखेगा। मध्य प्रदेश के परिणाम ने राजनीति में प्रचलित एंटी-इनकम्बेंसी फैक्टर को भी पुनर्परिभाषित किया है।
अब तक यह प्रचलित धारणा थी कि कार्यकाल की अवधि के साथ एंटी-इनकम्बेंसी फैक्टर विकसित होता है और समय के साथ प्रबल होता जाता है। मध्य प्रदेश ने साबित किया कि एंटी-इनकम्बेंसी का संबंध समयावधि से नहीं, बल्कि कार्यशैली से है। शिवराज सिंह सरकार ने जिस तरह कल्याणकारी शासन चलाया, जाति-धर्म का भेद किए बगैर सभी वंचित वर्गों को कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिया, उससे शिवराज सरकार के प्रति एंटी के बजाय प्रो-इनकम्बेंसी विकसित हुई।
कांग्रेस नेतृत्व इसे समझ पाने में पूरी तरह विफल रहा जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। इसके अलावा मध्य प्रदेश समेत सभी चुनाव वाले राज्यों में राष्ट्रीय मुद्दों ने भी अहम भूमिका निभाई है। खासकर चुनाव अभियान के बीच कुछ गैर-भाजपा दलों द्वारा सनातन धर्म को अपमानित करने के कुप्रयास ने जनमानस को गहरा उद्वेलित किया।
खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस विषय को जिस भावुक ढंग से अपनी सभाओं में उठाया, उसका मतदाताओं के मन-मस्तिष्क पर व्यापक असर हुआ। मध्य प्रदेश के चुनाव परिणाम को संक्षेप में समझना चाहें तो भाजपा ने इसे अपनी योजना, रणनीति और परिश्रम के बल पर जीता जबकि परिस्थितियों के सहारे सफलता पाने की राह देख रही कांग्रेस के लिए इंतजार अब बहुत लंबा हो गया।