हालिया नोटबंदी से गरीबों पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर देश में एक तरह का राजनीतिक संघर्ष छिड़ गया है। फिलहाल देश के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में यही मुद्दा है। नोटबंदी के समर्थक और यहां तक कि विरोधी, दोनों ने परोक्ष रूप से यह माना है कि बैंकों के बाहर लगी लंबी कतारें गरीबों की वास्तविक लेन-देन संबंधी जरूरतों के कारण देखने को मिल रही हैं, लेकिन विडंबना है कि काले धन के जमाखोरों के एजेंट के तौर पर काम कर रहे लोगों से इन गरीबों को अलग करने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है।
देश की कुल आबादी का आधा हिस्सा जो निचले स्तर पर स्थित है या गरीबी की हालत में जीवन-यापन कर रहा है, उसकी आय के आधार पर उसकी समस्याओं का आकलन करने के लिए हमने नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन यानी एनएसएसओ के आंकड़ों का प्रयोग किया है। यह सर्वे कुल आबादी में विभिन्न् आय वर्गों की नकद और गैर-नकद आय की जानकारी मुहैया कराता है। हमने 2011 के सर्वे के आंकड़ों का उपयोग किया है, जो कि पूरे देश से 4,95,016 लोगों और 1,01,718 परिवारों से जुटाए गए हैं। हमारे आकलन के मुताबिक देश के गरीबों को संभवत: एक बार अपने पुराने नोटों को नए नोट में बदलने के लिए बैंक की शाखाओं में जाने की नौबत आएगी। इस प्रकार हमारा निष्कर्ष है कि कुछ राजनेताओं द्वारा नोटबंदी से गरीबों को हो रही परेशानी की जो बात उठाई जा रही है, वह निहायत ही अतिरंजनापूर्ण है।
गरीबों पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन करने के लिए हमने निम्न तीन तर्कों को आधार बनाया है। पहला, गरीबों के पास 500 और 1000 रुपए के नोट के रूप में भारी बचत होने की संभावना नहीं है। दूसरा, निचले स्तर की आधी आबादी करीब-करीब अपनी कुल आय को अंतत: अपने उपभोग पर खर्च करती है। तीसरा, भारत में निचले स्तर वाली आधी आबादी की साप्ताहिक आय हमें इस बात का आकलन करने का मौका देती है कि गरीबों के पास कितनी नकदी होगी, जिसे उन्हें अपने नजदीक के बैंक या डाकघर में जाकर बदलना होगा।
सर्वे के आंकड़े इस बात को बखूबी दर्शाते हैं कि भले ही वे ग्रामीण कामगार हों या दैनिक कामगार या फिर साप्ताहिक अथवा पाक्षिक कामगार, सभी हफ्ते में औसतन 1350 रुपए कमाते हैं। वास्तव में निचले स्तर पर रहने वाली आधी शहरी आबादी भी प्रति हफ्ते औसतन महज 1970 रुपए कमाती है। यदि यह आबादी अपनी दो हफ्ते की कमाई को भी बचाती है, तो भी यह मात्रा सरकार द्वारा पूर्व में बैंक से अदला-बदली की तय की गई सीमा 4000 हजार रुपए से कम ही है। हालांकि इस छूट के हो रहे दुरुपयोग को देखते हुए सरकार ने बाद में इस अदला-बदली की सीमा को घटाकर 2000 रुपए तक सीमित कर दिया।
बहरहाल, इस निष्कर्ष में यह माना गया है कि दिहाड़ी, साप्ताहिक या पाक्षिक कामगार पिछले कई महीनों से लगातार काम कर रहे होंगे और उन्होंने अपने खर्च की तुलना में कुछ राशि बचत के रूप में भी अर्जित कर ली होगी, जिसे उन्हें बदलने की जरूरत है। जबकि सच्चाई यह है कि इस तरह के श्रमिक अक्सर बेरोजगारी का शिकार रहते हैं। इसका मतलब है कि ऐसे लोगों के पास बचत के रूप में चार हजार रुपए से कम होने की ही संभावना है। जाहिर है, जिन गरीबों को हो रही तकलीफ की बात की जा रही है, उन्हें वास्तव में अपना पैसा बदलने के लिए केवल एक बार बैंक या स्थानीय डाकघर जाने की जरूरत है।
एनएसएसओ 2011-12 के आंकड़ों का अध्ययन करने पर जो बातें सामने आई हैं, उनसे पता चलता है कि बीते हफ्ते बैंकों और एटीएम के सामने जो लंबी-लंबी कतारें नजर आईं, उसमें आबादी के दो वर्गों की संख्या अधिक थी। पहला, उच्च स्तर पर स्थित देश की आबादी में शामिल वे लोग जो दौलतमंद हैं और जिन्होंने ईमानदारी से पैसा कमाया है। वे लोग अपने पुराने नोट बदलना चाहते थे। दूसरा वर्ग उन लोगों का था, जो बेईमानों के एजेंट के रूप में काम कर रहे थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि पहले वर्ग के लोगों को भारी तकलीफ हो रही है और सरकार तथा रिजर्व बैंक को उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए हरसंभव कदम उठाने चाहिए। हालांकि यह भी सही है कि इस वर्ग के लोग गरीब नहीं हैं। इसके विपरीत दूसरे वर्ग के लोग जो लाइनों में खड़े हो रहे हैं, उनकी मंशा सिर्फ बेईमानों की मदद कर उनसे लाभ हासिल करना है। बेईमान उन्हें अपने काले धन को सफेद करने के एवज में लाभ मुहैया करा रहे हैं। कोई भी राजनेता जो सच में देश को काले धन से छुटकारा दिलाने की मंशा रखता है, उसे दूसरे वर्ग के लोगों से सहानुभूति नहीं जतानी चाहिए। कुल मिलाकर वे बेईमानों को टैक्स और जुर्माना भरने से बचने के लिए बहका-उकसा रहे हैं।
इस नोटबंदी के चलते देश के गरीबों के सामने 30 दिसंबर तक आने वाली कठिनाइयों के संबंध में विचार करें तो पाते हैं कि इस घोषित समयसीमा के बीच आय के आठ साप्ताहिक दिवस पड़ रहे हैं। तो सर्वे के आंकड़ों के आकलन के अनुसार इतने समय तक निचले स्तर पर स्थित देश की आधी आबादी की अधिकतम कमाई 11,700 रुपए होगी। यदि हम मान लेते हैं कि दिसंबर तक निचले स्तर पर स्थित आबादी की मजदूरी का भुगतान पुराने नोटों में किया जाता है, तो भी उन्हें अपने पुराने नोटों को नए नोटों में बदलने के लिए (पुरानी घोषणा के मुताबिक) सिर्फ तीन बार बैंक या डाकघर में जाना पड़ता।
एक खास समय पर बहुत संभव है कि इस आय वर्ग के कामगार बेरोजगार भी हों, लेकिन हम यह भी ना भूलें कि उनमें से बहुत से मनरेगा के तहत भी पंजीकृत हैं। ऐसे में उनके पास बैंक खाता होने की संभावना है। गौरतलब है कि मनरेगा का भुगतान बैंकों के जरिए होता है। इस प्रकार एक ईमानदार नियोक्ता या मालिक, जो कि सफेद धन के जरिए मजदूरी का भुगतान करता है, वह चेक से भी मजदूरी का भुगतान कर सकता है, जिसे मनरेगा भुगतान की तरह ही बैंक में जाकर भुनाया जा सकता है। इस मामले में ऐसे कामगारों को भी अपना चेक भुनाने के लिए एक बार बैंक जाना पड़ सकता है। वैसे आय के निम्न स्तर को देखते हुए निकासी की सीमा इस मामले में निर्धारित होने की संभावना नहीं है।
निश्चित रूप से यहां पर हम यह तर्क नहीं दे रहे हैं कि नोटबंदी से गरीब लोगों को तकलीफ नहीं हो रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी कार्यदिवस के दिन कतार में लगने से कई गरीबों की आय प्रभावित हो रही है। दरअसल हम सर्वे के आंकड़ों के प्रयोग और उनका सावधानीपूर्वक विश्लेषण कर कुछ कपटी राजनेताओं द्वारा किए जा रहे गरीबों के लिए लड़ाई लड़ने के झूठे दावों को सामने लाना चाहते हैं।
(लेखक इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस से जुड़े हैं
और यह लेख इसी संस्थान के प्रसन्न् तंत्री के सहयोग से लिखा गया है)