संसद में महिलाओं के समुचित प्रतिनिधित्व जैसे अहम मुद्दे पर हाल ही में दो प्रांत्रीय क्षत्रपों ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक तथा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कदम आगे बढ़ाए हैं। नवीन पटनायक ने जहां अपनी पार्टी बीजद से लोकसभा चुनाव के लिए 33 फीसदी महिलाओं को टिकट देने की घोषणा की, वहीं तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने थोड़ा और आगे बढ़ते हुए 41 फीसदी सीटों पर महिला प्रत्याशी को उतारने का एलान किया। साफ है कि इन दोनों ने बदलते वक्त के मिजाज को भांप लिया। आज महिलाएं एक अहम मतदाता वर्ग हैं और उनकी आकांक्षाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चुनाव-दर-चुनाव मतदान केंद्र के बाहर लगी कतारों में हम महिलाओं की बढ़ती मौजूदगी को साफ देख सकते हैं, जो अपने सशक्तीकरण के लिए ललक रही हैं। लंबे अरसे तक राजनीतिक पार्टियां महज कुछ ग्राम सोना, पे्रशर कुकर, टीवी, साड़ी या गैस चूल्हा आदि देने के नाम पर उन्हें भरमाती रही हैं। लेकिन अब समय आ गया है कि उन्हें इस तरह के झुनझुनों से बहलाना बंद किया जाए और शीर्ष पर नीति-निर्धारण प्रक्रिया में उनकी भागीदारी बढ़ाई जाए। हमारी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को प्रतिनिधित्व बढ़े।
हम देश में वयस्क मताधिकार के तकरीबन सात दशक बाद राज्य-तंत्र में आए व्यापक बदलाव पर गौर करें। पहले चुनावों में महिलाएं हाशिए पर रहते हुए महज मूक प्रेक्षक हुआ करती थीं। लेकिन धीरे-धीरे मतदान में उनकी भागीदारी बढ़ी। हालांकि आज भी महिलाओं के मुकाबले पुरुष ज्यादा मतदान करते हैं, लेकिन महिला मतदाताओं के प्रतिशत में ज्यादा उछाल आया है। वर्ष 1962 में जहां महिला मतदाता महज 46.63 फीसदी थीं, वहीं 2014 में यह आंकड़ा बढ़कर 65.63 तक पहुंच गया। वर्ष 1962 में जहां पुरुष-महिला मतदाता के बीच का अंतर 16.7 फीसदी था, वह 2014 में सिमटते हुए महज 1.8 फीसदी रह गया। देश के 29 में से 16 राज्यों में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं ने ज्यादा मतदान किया।
अब राजनीति में उनके प्रतिनिधित्व पर गौर करें। वर्ष 1993 में पारित 73वें संविधान संशोधन ने यह तो सुनिश्चित कर दिया कि पंचायतों व अन्य स्थानीय निकायों में 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगी, लेकिन राज्य विधानसभाओं और संसद में उनके लिए ऐसा कोई कोटा नहीं है। इसका नतीजा यह है कि राजनीतिक ढांचे के उच्च सोपानों में उनकी संख्या आज भी काफी कम है।
वर्ष 2009 में पहली बार लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या ने 10 फीसदी का आंकड़ा पार किया। मौजूदा लोकसभा में यह मामूली रूप से बढ़कर 12.15 फीसदी तक पहुंचा। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने पाया कि राजस्थान और बिहार की विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा है। लेकिन फिर भी यह आंकड़ा 14 फीसदी के आसपास ही है, जो हास्यास्पद है।
इन दशकों में मतदाता के रूप में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी और संसद जैसे वृहद-स्तरीय नीति-निर्धारक निकायों और यहां तक कि राजनीतिक दलों के भीतर भी उनके कम प्रतिनिधित्व के बीच का यह अंतर अरुचिकर लगता है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही प्रमुख राष्ट्रीय दल सांगठनिक पदों पर और ज्यादा महिलाओं को लाने का वादा करते रहे हैं, लेकिन कोई भी अपनी बात पर खरा नहीं उतरा।
अब जरा महिलाओं के न्यून राजनीतिक प्रतिनिधित्व की उनके राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर प्रदर्शन से तुलना करें। युनाइटेड नेशंस युनिवर्सिटी वर्ल्ड इंस्टिट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक महिलाओं के प्रतिनिधित्व वाले विधानसभा क्षेत्रों की आर्थिक विकास दर पुरुष प्रतिनिधि वाले क्षेत्रों से ज्यादा पाई गई। दो दशकों तक चले इस अध्ययन में 4,265 विधानसभा क्षेत्रों को शामिल किया गया। और देखिए, इससे क्या निष्कर्ष निकलकर सामने आया।
महिलाएं न सिर्फ अपने क्षेत्र के आर्थिक प्रदर्शन को सालाना 1.8 फीसदी तक सुधारती हैं, बल्कि वे अधोसंरचात्मक परियोजनाओं को भी समय पर पूरा करती हैं। उनके आपराधिक मामलों और भ्रष्टाचार में लिप्त होने की आशंका भी पुरुषों के मुकाबले कम होती है। वे अपने पुरुष साथियों के मुकाबले अपेक्षाकृत युवा व उत्साही भी होती हैं। क्या ये विधायक/सांसद के रूप में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिहाज से बेहतरीन कारण नहीं?
यूएन के अध्ययन में यह भी पाया गया कि राजनीतिक महिला प्रतिनिधि स्वास्थ्य, स्वच्छता, शिक्षा, स्वच्छ पेयजल और महिला सुरक्षा जैसे मुद्दों के प्रति अपने पुरुष साथियों के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील व सक्रिय होती हैं। मसलन, एक अध्ययन में पाया गया कि पुरुष नेतृत्व वाली पंचायतों के मुकाबले महिला-नीत पंचायतों ने अपने गांवों को 62 फीसदी अधिक स्वच्छ पेयजल परियोजनाओं की सौगात दी।
दुर्भाग्य से, राजनीति आज इतनी प्रतिस्पर्द्धी हो गई है कि पार्टियां प्रत्याशियों की बाकी खूबियों के मुकाबले उसकी जीतने की क्षमता को ही तरजीह देती हैं। और प्रत्याशी की यह जीतने की क्षमता काफी हद तक धनबल और बाहुबल पर निर्भर करती है, जहां महिलाएं कमजोर पड़ जाती हैं और प्रत्याशी के अंतिम चयन की बारी आने पर पिछड़ जाती हैं।
यह भी दिलचस्प है कि नवीन पटनायक ने लोकसभा चुनाव के लिए तो महिलाओं को 33 फीसदी टिकट देने की घोषणा की, लेकिन साथ-साथ हो रहे विधानसभा चुनाव के लिए ऐसा करने से हिचक गए। संभवत: यहां जीतने की क्षमता वाली बात उनके जेहन में रही हो।
पटनायक के आलोचक यह भी कह रहे हैं कि उन्होंने अपने अलोकप्रिय सांसदों के टिकट काटने के लिए यह महिला कार्ड खेला है। लेकिन फिर भी उनके इस दांव में निहित संदेश को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। उनका यह कदम चुनावों में महिलाओं की बढ़ती उत्साही भागीदारी के साथ राजनीति में महिलाओं की बढ़ती महत्ता की स्वीकार्यता है।
बहरहाल, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी के इस कदम पर अन्य दलों की प्रतिक्रिया गौरतलब है। कांग्रेस समेत ज्यादातर दल इसके प्रति उदासीन हैं। भाजपा ने तो पटनायक की इसलिए आलोचना की कि उन्होंने विधानसभा चुनावों के लिए भी ऐसा क्यों नहीं किया।
प्रमुख राष्ट्रीय दलों का यह रवैया अजीब है। महिला आरक्षण विधयेक 1996 से लेकर अब तक संसद से पारित होने की बाट जोह रहा है। आरक्षण भले ही सर्वश्रेष्ठ कदम न हो, लेकिन यदि आधी आबादी की आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व में यह लैंगिक बराबरी ला सके तो यह अच्छी बात होगी। इस लिहाज से कहना होगा कि महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने का समय भी अब आ गया है।
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं)