हृदयनारायण दीक्षित। पुरस्कार उत्कृष्ट कर्म कुशलता का प्रसाद है। सभी समाज अपने नागरिकों से उत्कृष्ट कार्य की अपेक्षा रखते हैं। राष्ट्र, राज्य उत्कृष्ट कार्य के लिए पुरस्कृत करते हैं और गलत कार्य के लिए दंडित। भारत में भी भिन्न-भिन्न क्षेत्रों व सेवाओं में उत्कृष्ट कार्य के लिए पुरस्कार दिए जाते हैं। पुरस्कृत महानुभाव प्रेरित करते हैं। सामान्यजन उनसे प्रेरित होकर राष्ट्र संवर्धन के काम में जुटते हैं। राष्ट्रपति रहते हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 1954 में भारत रत्न के रूप में सर्वोच्च नागरिक सम्मान की स्थापना की थी। इसी क्रम में समाज सेवा में उल्लेखनीय योगदान के लिए पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री पुरस्कार दिए जाते हैं। साहित्य और खेल आदि क्षेत्रों में भी अनेक पुरस्कार हैं। पुरस्कार कर्म, कुशलता की लोक स्वीकृति होते हैं, परंतु पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने किसान आंदोलन के समर्थन में पद्म विभूषण पुरस्कार वापिस कर दिया है। परगट सिंह सहित कई खिलाड़ी भी पुरस्कार वापस करने की घोषणा कर रहे हैं। पंजाब के कुछ साहित्यकारों ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने की घोषणा की है। आंदोलित किसान संसद द्वारा पारित तीन कानूनों की वापसी की मांग कर रहे हैं। केंद्र और आंदोलनकारियों के बीच कई दौर की वार्ता चली है और यह लगातार जारी है। इन आंदोलनकारियों में कई राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी शामिल हैं।
पुरस्कार वापसी का कोई औचित्य नहीं है। पुरस्कृत व्यक्ति नियमानुसार इन पुरस्कारों को अपने नाम के साथ पदवी के रूप में प्रयोग नहीं कर सकते। यह पुरस्कृत व्यक्ति की संपदा नहीं है। पुरस्कारों की गरिमा है। इन्हें वापस करने की घोषणा गरिमा के प्रतिकूल है। पुरस्कार मात्र व्यक्तिगत उपलब्धि न होकर सामाजिक और राष्ट्रीय उपलब्धि भी होते हैं। राष्ट्र पुरस्कृत लोगों के प्रति गर्व का अनुभव करता है। पुरस्कार का तिरस्कार समाज और राष्ट्र की आकांक्षा का भी अपमान है। कानून बनाना संसद का काम है। विधि स्थापित सरकार ने इन कानूनों का मसौदा बनाया है। संसद ने अपनी विधायी क्षमता के आधार पर कानून पारित किए हैं। तब संसद द्वारा पारित इन कानूनों से पुरस्कार वापसी का क्या संबंध हो सकता है?
पुरस्कार का तिरस्कार उचित नहीं है, लेकिन यह मर्ज नया नहीं है। वर्ष 2015 में भी कथित असहिष्णुता के नाम पर अनेक साहित्यकारों ने अकादमी पुरस्कार वापस किए थे। तब कवि गोपालदास नीरज ने कहा था, 'साहित्यकारों को सम्मान नहीं लौटाना चाहिए। ऐसा करके उन्होंने बहुत गलत काम किया है। साहित्यकारों को सम्मान उनके विचार और साहित्य के प्रति योगदान के लिए मिलता है। इन्हें वापस करने से सम्मान का अपमान होता है।Ó वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. नामवर सिंह ने भी पुरस्कार वापसी को उचित नहीं माना था। ताजा प्रकरण में भी पुरस्कार वापसी का कोई औचित्य नहीं है। आंदोलनकारी अपने मांगपत्र को लेकर सरकार से वार्तारत हैं। सरकार भी उनसे लगातार बात कर रही है। ऐसे में पुरस्कार वापसी का औचित्य क्या है? साल 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी। पूरा देश कैदखाना था। वरिष्ठ पत्रकार भी उत्पीडऩ के शिकार हुए थे। इसके विरोध में पुरस्कार वापसी की ऐसी घोषणा नहीं हुई। इंदिरा गांधी की निंदनीय हत्या के बाद 1984 में अनेक सिख मारे गए। उसे लेकर भी पुरस्कार वापसी की मुहिम नहीं चली। आखिरकार किसान आंदोलन और पुरस्कार वापसी के बीच क्या संबंध है?
पुरस्कार वापसी वाले महानुभाव किसानों की मांगों के समर्थक हैं। आंदोलन का समर्थन या विरोध सबका अधिकार हैं। यह जनतांत्रिक कार्रवाई है। वह बिना पुरस्कार वापसी भी अपना पक्ष मजबूती के साथ रख सकते थे। मूलभूत प्रश्न है कि क्या पुरस्कार लौटाकर विधि निर्वाचित जनादेश प्राप्त सरकार को कानून वापसी के लिए बाध्य किया जा सकता है। सरकार का अपना दृष्टिकोण है। उसे किसानों की समस्याओं की जानकारी है। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने कानूनों के समर्थन में अपना दृष्टिकोण रख दिया है। तीनों कानून किसान समृद्धि के लिए बनाए गए हैं। ये किसानों की आय दोगुनी करने के सरकारी संकल्प का हिस्सा हैं। पुरस्कृत महानुभावों को ईमानदारी से इस तथ्य का विश्लेषण करना चाहिए। दरअसल पुरस्कार की परंपरा समाज में प्रेरक व्यक्तियों को प्रतिष्ठित करने वाली है। पुरस्कृत व्यक्तियों के यश और क्षेत्र विशेष के काम समाज को लाभान्वित करते हैं।
किसी भी आंदोलन के उद्देश्यों, संकल्पों पर बहस की गुंजाइश सदैव रहती है। आंदोलन राजनीतिक अभिव्यक्ति का ही अति सक्रिय चेहरा होते हैं, लेकिन आंदोलन की भी मर्यादा होती है। आंदोलन में शामिल कुछ निहित स्वार्थी तत्व इससे राजनीतिक लाभ उठाना चाह रहे है। प्रधानमंत्री मोदी को अपशब्द कहने वाले तत्व भी आंदोलन को विरूपित कर रहे हैं। आम जनता को भी कठिनाई हो रही है। अनेक जगह मार्ग अवरोध हैं। सामान्य जन-जीवन प्रभावित हो रहा है। ऐसे में पुरस्कृत महानुभावों के कर्तव्य और भी संवेदनशील हो जाते हैं। वह अपनी प्रतिष्ठा का सदुपयोग करते हुए आंदोलन की दशा और दिशा को मर्यादित कर सकते थे, लेकिन उन्होंने उन्होंने ऐसा नहीं किया
राष्ट्र सम्यक विचारोपरांत ही कर्मकुशल लोगों को पुरस्कृत करता है। उन्हें सम्मान देता है। प्रतिष्ठा देता है। उनकी यश और कीॢत फैलती है। उनसे अपेक्षा होती है कि वे संस्कृति और विधि व्यवस्था के पक्ष में अपने प्रभाव का सदुपयोग करते रहेंगे, लेकिन इस पुरस्कार वापसी में ऐसा कर्तव्य पालन नहीं है। उन्होंने अपनी प्रतिभा का सदुपयोग नहीं किया। कथित असहिष्णुता के विरोध में भी पुरस्कार लौटाने वाले महानुभावों ने अपना कर्तव्य निर्वहन नहीं किया था। पुरस्कार वापसी को राजनीतिक हथियार बनाया जाना उचित नहीं है। संसदीय जनतंत्र में अनेक विचारधाराएं काम करती हैं। वैचारिक असहमति लोकतंत्र का सौंदर्य है। इस व्यवस्था में व्यक्तिगत विरोध की जगह नहीं होती। आंदोलन भी राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा होते है। आंदोलनकारियों और सरकार के बीच लगातार संवाद बना हुआ है, लेकिन कहीं-कहीं प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध व्यक्तिगत अक्रामण भी हो रहे हैं। पुरस्कृत महानुभाव इसे रोक सकते हैं। वे आंदोलन के कारण होने वाली नाकेबंदी को भी मर्यादित करा सकते थे। सरकार और आंदोलनकारियों के बीच सेतु बन सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
पुरस्कार वापसी गरिमामय नहीं है। इसलिए पुरस्कार वापसी का वक्तव्य एक साधारण खबर बनकर रह गया। इस वक्तव्य में कर्तव्य नहीं था। पुरस्कार वापसी की नई परिपाटी दुखद है। इसका अनुसरण गलत परंपरा को बढ़ावा देने वाला सिद्ध हो सकता है। इस तरह तो चिकित्सा, साहित्य, कला आदि सभी ज्ञान अनुशासनों के प्रतिष्ठित महानुभाव गुस्से में आकर अपनी डिग्रियां वापस करने लगेंगे। हम भारत के लोग पुरस्कृत महानुभावों से उत्कृष्ट आचरण व संविधान निर्देशित कर्तव्यपालन की अपेक्षा रखते हैं, लेकिन उनका यह कृत्य निराश करने वाला है। उनके आचरण से किसान आंदोलन को कोई लाभ नहीं होगा। वे तद्विषयक कोई बौद्धिक विमर्श भी नहीं शुरू करा सके हैं। उनके इस आचरण से सरकार और किसानों के बीच हो रहे संवाद का विषयांतर हुआ है। उनके विषयांतर से अंतरराष्ट्रीय अपयश भी बढ़ा है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)