कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए मोदी सरकार के कानूनों का किसानों के एक वर्ग द्वारा तीखा विरोध जारी है। इन किसानों के मन में शंका है कि इन कानूनों से उनकी आमदनी खतरे में पड़ सकती है। यह स्थिति तब है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भरोसा दिला चुके हैं कि न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी व्यवस्था समाप्त होने जा रही है और न ही मंडी व्यवस्था। इससे किसानों को आश्वस्त होना चाहिए, लेकिन वे उलटे आक्रोशित हो रहे हैं। कुछ राजनीतिक दल इन किसानोंं का भ्रम और बढ़ा रहे हैं।
केंद्र ने जो तीन कृषि कानून बनाए हैं, उनकी लंबे अरसे से प्रतीक्षा की जा रही है। जैसे आवश्यक वस्तु अधिनियम की व्यवस्था तब बनाई गई थी, जब हम अपनी आबादी का पेट भरने में ही सक्षम नहीं थे। इसके उलट आज ऐसे अधिशेष की स्थिति है कि भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआइ के गोदामों में अनाज रखने के लिए पर्याप्त जगह ही नहीं। ऐसे में भारत को खाद्यान्न के मोर्चे पर अकाल से अधिशेष की स्थिति का लाभ उठाने की दिशा में अग्र्रसर होना ही होगा। इसी कारण सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन का उचित फैसला किया है।
इसी तरह कृषि उत्पादन एवं विपणन समिति यानी एपीएमसी से जुड़े कानून में संशोधन भी समय की मांग है। आप देश की किसी भी मंडी में जाकर देख सकते हैं कि कैसे पल भर में किसानों की उपज का मनमाने दामों पर सौदा हो जाता है। इससे कमीशन एजेंटों को तो बढिय़ा फायदा मिल जाता है, लेकिन किसान अपेक्षित लाभ से वंचित रह जाते हैं। ऐसे में एपीएमसी कानून में सुधार से किसानों के लिए आवश्यक विकल्पों का बढऩा तय है और इससे खरीदारों के बीच प्रतिस्पर्धा भी बढ़ेगी। इसी तरह अनुबंध खेती से जुड़े कानून भी किसानों को राहत पहुंचाएंगे।
अमूमन किसान पिछली फसल के दाम देखकर ही अगली फसल की तैयारी करते हैं, लेकिन अनुबंध कृषि के जरिये वे भविष्य की फसल की कम से कम जोखिम के साथ बेहतर योजना बना सकते हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि किसानों को फसल उगाने से अधिक उसे बेचने में कहीं ज्यादा मुश्किल होती है। ये कानून काफी हद तक इस समस्या का समाधान करने में सक्षम हैं। इसी तरह आपूर्ति शृंखला बेहतर होने से उपभोक्ताओं का भी भला होगा। ये तीनों कानून यदि उचित रूप से लागू हुए तो इनमें भारतीय कृषि और किसानों की कायापलट करने की पूरी क्षमता है।
इसके बावजूद इन कानूनों का विरोध समझ से परे है। इस विरोध में एक स्पष्ट रुझान भी दिख रहा है कि यह मुख्य रूप से पंजाब के किसानों द्वारा किया जा रहा है। इसकी पड़ताल करें तो यही पाएंगे कि पंजाब में एफसीआइ बड़े पैमाने पर खरीद करता है। ऐसे में वहां के किसानों को लगता है कि मंडी व्यवस्था उनके लिए पूरी तरह उपयुक्त है। फिर आढ़तियों के आर्थिक हित और राज्य सरकार को मिलने वाले करीब 5,000 करोड़ रुपये के राजस्व का भी पहलू है। ऐसे में आढ़तियों और राज्य सरकार को ये अपने हाथ से फिसलता दिख रहा है। उनकी ये चिंताएं कुछ हद तक वाजिब भी हैं। ऐसे में उन्हें कुछ वर्षों के लिए इसकी क्षतिपूर्ति दी जा सकती है। या फिर निजी क्षेत्र के लिए खरीद की एक सीमा निर्धारित की जा सकती है। इस गतिरोध का सार्थक संवाद या ऐसे ही किसी मध्यमार्ग के जरिये हल निकाला जा सकता है, मगर इस पर पेच फंसाकर कुछ हासिल नहीं होने वाला। साथ ही पंजाब के किसानों को अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए गेहूं और धान जैसे विकल्पों से इतर भी देखना होगा।
प्रदर्शनकारी किसान जिस एमएसपी को लेकर अड़े हैं, वह व्यवस्था भी 1965 के दौर में तब की गई थी, जब देश खाद्यान्न के मोर्चे पर खस्ताहाल था। आज स्थिति ऐसी है कि उत्पादित खाद्यान्न के भंडारण के लिए पर्याप्त स्थान का अभाव है। स्पष्ट है कि हम अतीत की नीतियों के जरिये नहीं चल सकते। ये कृषि सुधार इन्ही गड़बडिय़ों को सुधारने के लिए गए हैं। कृषि क्षेत्र की भलाई के लिए निजी निवेश आवश्यक होगा। बाजार की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी। कृषि सुधारों का विरोध करने वालों को यह भी समझना होगा कि मौजूदा व्यवस्था को रातोंरात नहीं बदला जा सकता। इस संक्रमण अवधि में वे निजी क्षेत्र के खिलाडिय़ों से मुकाबला करने के लिए अपनी क्षमताएं बेहतर कर सकते हैं। इससे होने वाली प्रतिस्पर्धा का लाभ उत्पादक और उपभोक्ता दोनों को मिलेगा।
सरकार ने सुधारों की दिशा में कदम अवश्य बढ़ाए हैं, लेकिन कुछ कमियां भी छोड़ दी हैं। जैसे कुछ वस्तुओं की कीमतों में 50 से 100 प्रतिशत बढ़ोतरी की स्थिति में आवश्यक वस्तु अधिनियम लागू करने का प्रावधान शेष है। जबकि आवश्यक वस्तु अधिनियम को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए। सिर्फ युद्ध या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में ही इसका सहारा लिया जाए। यदि कोई पक्ष कीमतों को कृत्रिम रूप से बढ़ा-चढ़ाकर बाजार को विरूपित करने का प्रयास करता है तो उस स्थिति से निपटने के लिए भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग जैसी संस्था को सक्रिय किया जा सकता है।
वास्तव में कृषि क्षेत्र में ऐसे सुधारों की प्रतीक्षा तो लंबे समय से की जा रही थी, लेकिन मसला संवेदनशील होने के कारण कोई सरकार इन्हें आगे नहीं बढ़ा पाई। प्रधानमंत्री मोदी ने साहसिक फैसले लेने की अपनी विशिष्ट शैली में इन सुधारों पर कदम बढ़ाए हैं। उनकी सरकार पर जल्दबाजी में ये कानून बनाने का आरोप भी सही नहीं है, क्योंकि इन सुधारों पर विमर्श की शुरुआत वर्ष 2003 में वाजपेयी सरकार के समय से ही शुरू हो गई थी। कांग्र्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग की सरकार में भी इन पर यदाकदा चर्चा होती रही। यहां तक कि वर्ष 2019 के आम चुनाव में कांग्र्रेस ने अपने घोषणापत्र में इन मांगों का उल्लेख अपने घोषणापत्र में किया भी था और अब वह इसका विरोध कर रही है। मोदी सरकार ने अभी तक दृढ़ता से इन सुधारों का समर्थन किया है। उसे किसानों द्वारा बनाए जा रहे दबाव के आगे नहीं झुकना चाहिए। यदि मोदी ऐसे किसी दबाव के चलते कृषि सुधारों पर कदम पीछे खींचते हैं तो भविष्य में किसी भी सरकार के लिए इन सुधारों पर कदम आगे बढ़ा पाना असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल जरूर होगा।
(लेखक कृषि अर्थशास्त्री और इक्रियर में इन्फोसिस चेयर प्रोफेसर फॉर एग्र्रीकल्चर हैं।)