रायपुर (राज्य ब्यूरो)। संजीत कुमार। गंगा दुदी और नंदू मरकाम जैसे हजारों आदिवासियों के विस्थापन की पीड़ा कश्मीरी पंडितों के दर्द से कम नहीं है। नक्सलियों के डर से वर्ष 2003 से 2008 के बीच सुकमा और बीजापुर जिले के हजारों आदिवासी अविभाजित आंध्रप्रदेश चले गए। यह वह दौर था जब बस्तर में नक्सली तेजी से पैर पसार रहे थे और सुरक्षाबल की तैनाती भी बढ़ रही थी।
यहां से विस्थापित होने वाले ज्यादातर आदिवासी आंध्रप्रदेश में स्थानीय लोगों की मदद और अपनी मेहनत से जंगल के आसपास खेती की जमीन तैयार कर जीवनयापन करने लगे। लेकिन आंध्र और तेलंगाना सरकार अब उन्हें समस्या मानने लगी है। विस्थापित आदिवासियों को उनके खेतों से बेदखल किया जा रहा है। ऐसे में बहुत से आदिवासी अपने गांव लौटना चाहते हैं, लेकिन खतरा अब भी बना हुआ है। इसलिए आदिवासी केंद्र व राज्य सरकार से मदद की गुहार लगा रहे हैं। विस्थापित आदिवासियों का एक दल इसी सिलसिले में रायपुर पहुंचा है। यहां मुख्यमंत्री से भेंट के बाद वह दिल्ली जाने की तैयारी में है।
आज मिलेंगे मुख्यमंत्री बघेल से
इन विस्थापित आदिवासियों को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सोमवार को सुबह 11 बजे मिलने का समय दिया है। इस मुलाकात के दौरान आदिवासी अपने निवास और जीवकोपार्जन की स्थायी व्यवस्था की मांग करेंगे।
छह को दिल्ली में करेंगे प्रदर्शन
करीब सौ की संख्या में विस्थापित आदिवासी यहां से दिल्ली जा रहे हैं। वहां छह अप्रैल को जंतर-मंतर में धरना देकर केंद्र सरकार को अपने दर्द से अवगत कराने की कोश्ािश्ा करेंगे।
केंद्र के हस्तक्षेप के बिना समाधान संभव नहीं
विशेषज्ञों की राय में विस्थापित आदिवासियों की समस्या का समाधान बिना केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के संभव नहीं है। मामला छत्तीसगढ़ के साथ ही आंध्रप्रदेश और तेलंगाना से जुड़ा हुआ है। केंद्र सरकार चाहे तो जो आदिवासी आंध्र व तेलंगाना में रहना चाहते हैं, उनके लिए वहां की राज्य सरकारों के माध्यम से व्यवस्था करा सकती है।
केस-1
ये सुकमा के कोंटा ब्लाक के मेड़वाई के रहने वाले गंगा दुदी हैं। खेती करने के साथ हाट-बाजारों में घूम-घूमकर किराना का सामान भी बेचते थे। एक दिन दादा लोगों (नक्सलियों) ने सीआरपीएफ के जवानों से बात करते हुए देख लिया। बस फिर क्या था, मुझ पर मुखबिरी का आरोप लगाकर छह महीने के लिए घर से निकलने पर प्रतिबंध लगा दिया। छह महीने के बाद उन लोगों के हाथ-पैर जोड़कर किसी तरह गांव से निकला तो पुलिस वालों ने उस पर नक्सलियों को रसद पहुंचाने का आरोप लगाना शुरू कर दिया। दोनों तरफ से जान खतरे में पड़ गई, इसलिए 2005 में परिवार सहित गांव छोड़कर आंध्रप्रदेश के गोदावरी जिले के अमलापुरम चला गया। वहां परिचितों की मदद से पांच एकड़ जंगल की जमीन को खेती के लायक बनाकर गुजर-बसर करने लगा, लेकिन अब वहां की सरकार उस जमीन पर पेड़ लगवा रही है। हम अपने गांव लौटना चाहते हैं, लेकिन गांव अंदरूनी क्षेत्र में है। यहां हमारी जमीन पर दूसरों ने कब्जा कर लिया है। मांगने पर जाने से मारने की धमकी देते हैं।
ये नंदू मरकमा हैं। मूल रूप से सुकमा जिले के रहने वाले हैं। करीब 19 वर्ष पहले नक्सलियों के डर से पूरा परिवार आंध्रप्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले में बस गया गया। वहां किसी तरह खेती-बाड़ी करके जीवनयापन कर रहे थे, लेकिन अब वहां सरकार खेती करने नहीं दे रही है।
मरकाम कहते हैं कि यहां के मुकुतोंग गांव में उनका बचपन बीता है। परिवार की कई यादें जुड़ी हैं। विस्थापितों का जीवन जीते-जीते ऊब गए हैं। हम अपने मूल गांव लौटना चाहते हैं, लेकिन गांव अंदरूनी क्षेत्र में है। वहां आज भी नक्सलियों का खतरा बना हुआ है। छत्तीसगढ़ सरकार हमारी मदद करे और सुरक्षित क्षेत्र में हमें रहने और खेती के लिए जगह दे तो वर्षों पहले अपनी मिट्टी छोड़कर जाने वाले हमारे जैसे हजारों परिवार वापस लौट सकते हैं।