102 साल बाद अफ्रीका से फिर भारत लाए गए चीते
स्थानीय स्तर पर चीते उपलब्ध नहीं होने के कारण 1920 में अफ्रीका से चीते मंगवाए गए थे। एक सौ दो साल बाद फिर दक्षिण अफ्रीकी देश नामीबिया से चीते भारत लाए गए हैं और इन्हें उस राज्य में छोड़ा जा रहा है जहां भारत के अन्तिम तीन चीतों को 75 साल पहले मारा गया था।
कुल मिलाकर भारतवासी 75 साल बाद दुनिया का तेज रफ्तार चीता देख पाएंगे। शिवपुरी जिले का कूनो नेशनल पार्क अब भारत में चीतों का नया सृजन बनने जा रहा है। चीता अन्य बिलावों से काफी अलग किंतु ग्रेहाउंड कुत्ते से तुलना किया जाने वाला विडाल परिवार का एकमात्र ऐसा जीव है। जिसके पंजे हर वक्त स्पष्ट दिखाई देते हैं।
चीता 2000 साल से पालतू
बिलाव परिवार में स्याहगोश व चीता ही ऐसे दो जीव थे जिन्हें शिकार करने के लिए पाला जाता था। चीते को 2000 वर्ष पूर्व पालतू बना लिया गया था। शिकार को दौड़ाकर पकड़ने के लिए इसके उपयोग का सर्वप्रथम विवरण चालुक्य राजा सोमेश्वर तृतीय की मानसोल्लास में मिलता है, जो 12 वीं शताब्दी में लिखी गई थी। उससे पहले भी भारत के मुसलमान राजा व शासक वर्ग खूब शिकार करते थे। मुगलों के शासन काल में तो यह क्रीड़ा चरम पर पहुंची। चीता और शिकार मुगल दरबार में एक अनिवार्य क्रीड़ा था।
शिकार के लिए शिकार
चीतों के खात्मे के पीछे मनुष्य का ही हाथ रहा है। भारत में हिरणों के पीछे दौड़ाने की क्रीड़ा के लिए चीतों को पकड़ा जाता था। 12वीं शताब्दी तक यह परंपरा स्थापित हो चुकी थी और यह वर्ष 1947 तक यह अबाधित चलती रही। अकबर बादशाह के शासनकाल में यह क्रीड़ा चरमोत्कर्ष पर थी। उसके दरबार में एक समय एक हजार चीते थे।
नर और मादा चीतों को काफी मात्रा में जंगलों से पकड़ कर लाने के कारण भी शावकों को बचाने की दर में बहुत कमी आई। यह निश्चित ही भारत में चीतों की संख्या कम होने का महत्त्वपूर्ण कारण था। चीते के साथ शिकार करने की परंपरा भारत में वर्ष 1947 में भारतीय राज्यों के एकीकरण व उसके बाद तक कायम रही। वर्ष 1920 के दशक में इस क्रीड़ा के लिए अफ्रीका से चीता मंगाए गए थे क्योंकि स्थानीय तौर पर अब वे उपलब्ध नहीं थे।
ऐसे पकड़े जाते थे चीते
कुछ ऐसे पेड़ होते थे, जहां चीते अपने पंजों को रगड़ कर नाखून को पैना करते थे। शिकारी इसी तरह के पेड़ों को ढूंढ कर, उसके चारों तरफ फंदे बिछा कर चीतों को पकड़ते थे। चीतों को प्रशिक्षित करने के तरीकों को भारत में एक कला के स्तर पर विकसित किया गया था।
शावकों को भी आसानी से प्रशिक्षित किया जा सकता था। इस खूंखार जीव को बंदी बना कर लाते थे। भूख और नींद की कमी तथा लगातार डांट के प्रभाव से यह शीघ्र ही वश में आ जाते थे। तत्पश्चात इनको घुमाने के लिए बाजार ले जाया जाता था ताकि वह धीरे-धीरे आदमियों की संगत में घूमने का अभ्यस्त हो सके।
मैदान में करते थे शिकार
हिरणों पर किए गए एक अध्ययन से निष्कर्ष सामने आया कि जंगलों की कटाई व उन्हें कृषि खेतों में परिवर्तित करने से हिरण प्रजाति को फायदा हुआ पर चीते के लिए या परिणाम उल्टा साबित हुआ। कृषि खेत होने से उनके छिपने व प्रजनन के लिए वासस्थल में कमी आई। दूसरी परेशानी यह थी कि हल जूते खेतों या फसलों के बीच वह इतनी कुशलता से भागता कैसे? इसलिए अपनी जान बचाने चीता जंगलों के किनारे या खुले में रहता था।
जीवित रहने संघर्ष करते मारे गए
आखिरी चीते मध्यप्रदेश, बिहार तथा उड़ीसा में देखे गए अथवा मारे गए थे। वे जंगलों में खुरदार जीवों के बच्चों तथा घरेलू पशुधन, मुर्गियों को खाकर जीवन बसर करने मजबूर थे। आखरी तीन चीते कोरिया (अविभाजित मध्य प्रदेश) में सन 1947 में मारे गए थे। वर्ष के आखिरी दिनों में एक रात वे अचानक उस इलाके के महाराजा की गाड़ी के सामने पड़ गए थे और दो गोलियों में ही तीनों का काम तमाम हो गया था। तीनों नर थे और संभवत एक ही ब्यापी मां के थे।
चीतों के विलुप्त होने की आशंकाओं पर वर्ष 1952 में हुई भारतीय वन्यजीव परिषद की बैठक में चर्चा हुई थी। परिषद ने मांग रखी थी कि मध्य भारत में चीता की सुरक्षा को विशेष प्राथमिकता दी जाए। उसका कारण यह था कि अपने अस्तित्व के अंतिम चरण में चीते के वास स्थल का विस्तार क्षेत्र भारतीय पंजाब से लेकर पूर्व में बिहार तथा दक्षिण में मैसूर तक फैला हुआ था और इन इलाकों में कृष्णसार (हिरण) चिंकारा, खरगोश, नीलगाय, जंगली सूअर और घरेलू पशुधन की बहूलता थी।
कृष्णसार चीतों का सर्वाधिक पसंदीदा शिकार था। वर्ष 1955 में परिषद के सदस्य इस साहस पूर्व प्रयोग की बात तो करते रहे पर, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। स्वतंत्रता के बाद भी भारत में चीतों की नीति को लेकर काफी बहस होती रही हैं परंतु ठोस कदम नहीं लिया गया। कभी भारत के खुले घास मैदानों में फर्राटे लगाते इस विशाल चीतों को लाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी जवाबदार रही।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन के अवसर पर मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिला के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में अफ्रीकी देश से लाए चीतों को फिर से बसाने की पहल जैव विविधता को बढ़ाने और भारत में चीतों की वापसी की सुखद पहल है।
हेमंत कश्यप, सदस्य, छग राज्य वन्यप्राणी बोर्ड।