कोरबा। Protection Of Forest Medicines: कोरोनाकाल में अपनी सेहत की प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है। महामारी से खुद को बचाए रखने रोग प्रतिरोधक क्षमता बेहतर करने पर जोर दिया जा रहा है। इसके लिए आयुर्वेदिक औषधियों, काढ़ा व गिलोय के अर्क की मांग और उपयोग में भारी उछाल भी दर्ज किया गया है। कोरोना संक्रमण को रोकने वर्तमान में महत्वपूर्ण हो गई अनेक औषधियां जंगल से विलुप्त हो रहीं, जिनके संरक्षण के लिए वन विभाग ने एक योजना तैयार की थी। शासन से स्वीकृति नहीं मिल पाने के कारण वन्य क्षेत्र में इनकी खेती करने की यह योजना ठंडे बस्ते में चली गई।
जिले में एक ओर कोयला खदानों और विद्युत संयंत्रों का प्रदूषण सांस लेना मुश्किल कर रहा, त्वचा, श्वास व उदर से संबंधित अनेक बीमारियों से लोग जूझ रहे हैं। अगर हमारे शरीर की रोग प्रतिरोध प्रणाली मजबूत हो तो बीमारियों से लड़ने की शक्ति विकसित कर खुद को सेहतमंद रखा जा सकता है। इसके लिए गिलोय, आंवला, बेल जैसी अनेक औषधियां काफी कारगर मानी गई हैं। पूर्व में कोरबा के जंगलों में भी यह औषधियां प्रचुर मात्रा में मिलती रहीं, पर धीरे-धीरे वे हमारे वन्य क्षेत्र से विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी हैं।
इन वनौषधियों के संरक्षण की दिशा में प्रयास करते हुए वन विभाग ने एक योजना तैयार की थी। जंगल से वनौषधियों की कमी को दूर करने के साथ उनकी मात्रा व उपलब्धता को बढ़ावा के लिए वन विभाग ने जंगल में वनौषधियों की खेती करने का प्रस्ताव बनाया था। लगभग ढाई साल पहले बाल्को व लेमरू वन परिक्षेत्र में वनौषधियों की रोपणी विकसित करने के लिए भूमि का चिन्हांकन किया गया था। पर शासन से स्वीकृति नहीं मिलने के चलते इस योजना को आगे नहीं बढ़ाया जा सका और उसका प्रस्ताव फाइलों में दम तोड़ रहा है।
लेमरू-अरेतरा में वातावरण अनुकूल
विशेष तौर पर घने वन्य क्षेत्र वाले कोरबा वनमंडल के बाल्को व लेमरू वन परिक्षेत्र में सफेद मूसली, शतावर, आंवला, बेल, काली मूसली, पलाश, बहेड़ा, बिदारी कंद अन्य वनौषधियां काफी मात्रा में मिलती हैं। इस क्षेत्र का वातावरण इनके अनुकूल है। इस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी इन वनौषधियों की पहचान करना भी अच्छी तरह जानते है। वनों में विचरण करते हुए इन औषधियों का संग्रहण कर अपने घरों में इनकी दवा बनाकर घरेलू उपचार भी वे करते रहे हैं। एक अर्से से जंगल में पाई जाने वाली इन दुर्लभ वनौषधियों का अवैध दोहन हो रहा है, जिससे जंगल में इनकी कमी होने लगी है।
एक हजार हेक्टेयर चिन्हित
वन विभाग की ओर से इन दो वन परिक्षेत्रों के लिए दो साल पहले बनाई गई योजना के अंतर्गत लगभग एक हजार हेक्टेयर वन भूमि का चिन्हांकन किया गया था। अनुकूल दशा, मिट्टी एवं तापमान को देखते हुए इन क्षेत्रों का चयन किया गया था, जिसमें वनौषधियों की खेती के लिए एक करोड़ 42 लाख रुपए का प्रस्ताव तैयार कर शासन को भेजा गया था। दो साल बीत जाने के बाद भी अब तक शासन से स्वीकृति नहीं मिली है, जिसके चलते वनौषधियों की खेती किए जाने की योजना आगे नहीं बढ़ सकी।
इन बीमारियों के उपचार में सहायक
कुछ साल पहले कोरबा वनमंडल के इन परिक्षेत्रों में शोध कराया गया था। शोध के दौरान इस बात का पता चला था कि घने वन्य क्षेत्र में विभिन्न् प्रकार की वनौषधियों की भरमार है। बिना किसी मानव हस्तक्षेप या कृत्रिम विधि के प्राकृतिक रूप से उपजे, फले-फूले और जंगल के विभिन्न भागों में इनका विस्तार हुआ। इन वनौषधियों का खांसी, पीलिया, सिरदर्द, शक्तिवर्धक, अस्थि भंग, सीने में दर्द, मूत्र विकार, एसीडिटी, एनीमिया, दमा, रक्तचाप, कान दर्द, हाइड्रोसील, घमोरियां, खुजली, जोड़ दर्द, श्वेत प्रदर, रक्त प्रदर, त्वचा रोग, दांत दर्द, उल्टी आदि रोगों में दवा के रूप में उपयोग प्रचलित है।