विश्वबंधु शर्मा, जशपुरनगर। दो बहनें जनजातीय संस्कृति को कभी कैनवास पर तो कभी दीवारों पर प्राकृतिक रंगों से बखूबी उकेरती हैं। उद्देश्य बस इतना है कि जनजातीय संस्कृति की छाप हर शहर में हो।
खजुराहो, भोपाल, केरल सहित कई राज्यों में इन बहनों की कला जशपुर जिले का मान बढ़ा चुकी है। जिले के ग्राम शैला से ही विरासत में मिली प्रेरणा को वर्तमान में बेलमहादेव, तेतरटोली निवासी सुमंति भगत और शंकुतला भगत राष्ट्रीय स्तर पर पहचान देना चाहती हैं। भित्ती चित्रों को आधुनिक तरीके से पारंपरिक अंदाज में प्रस्तुत करने की इस कला को बिना कहीं विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किए सुमंति और शंकुतला ने स्वयं ही तैयार किया है।
बड़ी बहन शंकुतला बचपन से भित्ती चित्र को अलग-अलग माध्यमों पर तैयार करती थीं। जिसे देखकर छोटी बहन सुमंति ने इस कला में हाथ आजमाना शुरू किया। सुमंति ने बड़ी बहन शंकुतला से इस कला की बरीकी को समझा और खुद भी इसमें दक्ष हो गईं।
सुमंति ने जिन चित्रों को दीवारों, कपड़ों व जमीन पर बनाते बड़ी बहन को देखा था, उसे कैनवास पर उकेरने का अभ्यास किया। शकुंतला ने जब खजुराहो के संग्राहलय में अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाई तो उन्हें खूब सराहना मिली। शकुंतला की यह कला शौक तक सीमित थी, जिसे सुमंति ने विस्तार देने की पहल की और अब तक कर रही हैं। कुछ समय जशपुर व कुछ समय भोपाल में रहकर जशपुर जिले की जनजातीय संस्कृति की छाप पूरे देश में फैलाने की कोशिश कर रही हैं।
प्राकृतिक रंगों का उपयोग
सुमंति भगत इन दिनों जशपुर में अपनी बहन के साथ यहां के प्राकृतिक रंगों के साथ वर्तमान परिदृश्य को भविष्य की योजनाओं में शामिल करने में जुटी हैं। सुमंति ने बताया कि उनकी पेंटिंग में किसी भी प्रकार से आधुनिक व कैमिकल युक्त रंगों का प्रयोग नहीं होता है। वह अपनी पेंटिंग में मिट्टी का सबसे अधिक उपयोग करती हैं। इसके बाद वे विभिन्न प्रकार की सब्जियों, फूलों, सेम की फल्लियों, पलास, पत्तों से निकले रंगों से चित्र बनाती हैं। यह काफी पसंद किया जा रहा है और इनसे बनी पेंटिंग हमेशा जीवंत रहती हैं। उन्होंने बताया कि इसे खुले वातावरण में सुरक्षित रखने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है। इसके लिए वे विभिन्न प्रकार के गोंद आदि का उपयोग करती हैं, लेकिन रंगों के स्थान पर उसने कभी भी प्राकृतिक रंगों के विकल्प को नहीं चुना है और मिट्टी व फूल, पत्तियों से ही चित्रकारी करती हैं।
हर एक परंपरा की झलक
इस प्रकार तैयार किए जा रहे भित्ती चित्रों में जनजातीय संस्कृति को समझा जा सकता है। सुमंति और शकुंतला भगत ने बताया कि जनजातीय संस्कृतिक में करमा, सरहुल सहित विभिन्न पर्व की छाप, ढोल, मांदर, नृत्य शैली की झलक उनकी पेंटिंग में होती है। पारंपरिक रूप से उपयोग किए जाने वाले औजार, मिट्टी के बर्तन, सामान्य उपयोग की पारंपरिक सामग्री को पेंटिंग में उतारा जाता है, जिसे कला से जुड़े लोग अधिक पसंद करते हैं। इसका वैज्ञानिक महत्व भी है और जनजातीय इतिहास को भी इन पेंटिंग में समझा जा सकता है। कैनवास, दीवार, कपड़ों में यह पेंटिंग की जा सकती है।
कई शहरों में बनाए चित्र
शकुंतला और सुमंति ने देश के कई शहरों में अपनी कला की छाप छोड़ी है। शकुंतला एक गृहणी के रूप में काम करती हैं। शकुंतला ने खजुराहो में जनजातीय संस्कृति को लेकर पेंटिंग बनाए, जिसे खूब सराहा गया। इसी प्रकार सुमंति की केरल के वरतला शहर में एक कुंए में बनाई गई पेंटिंग ने इतना धमाल मचाया कि उसे हर वर्ष केरल में आमंत्रित किया जाता है। जनजातीय संग्राहलय भोपाल में भी सुमंति के बनाए पेंटिंग हैं और दर्जनों शहरों में इस प्रकार की पेंटिंग सुमंति के द्वारा बनाई गई हैं। सुमंति हर वर्ष इस प्रकार के समारोह में जाती हैं और अल्प संसाधनों में कुछ बेहतर करने का प्रयास करती हैं। वह आर्थिक रूप से कमजोर हैं, लेकिन किसी भी स्थिति में इस कला से विमुख होना नहीं चाहती हैं।
क्या है परेशानी
सुमंति भगत ने बताया कि इस कार्य में कई तरह की परेशानी है। आय प्राप्ति का कोई स्थाई स्त्रोत नहीं है और आधुनिक तरीके से इस कला को जीवंत रखने में आर्थिक मजबूती आवश्यक है। कैनवास महंगे है, जिसके माध्यम से इसे तैयार कर विशिष्ट स्थानों पर प्रदर्शित किया जा सकता है। शहरों में प्राकृतिक रंगों की तलाश करना आसान नहीं है। छोटे जिले में इस प्रकार की कला को सम्मान नहीं है। जशपुर जिले में इस प्रकार की कला को बढ़ावा देने कोई योजना नहीं बनी। कुछ अवसर आए तो विशेष संपन्न समूहों के द्वारा खानापूर्ति के लिए आबंटनों पर कब्जा कर लिया गया।