जगदलपुर। ब्यूरो
बस्तर की आदिवासी संस्कृति जितनी ही समृद्ध इस संस्कृति की शिल्पकलाएं हैं। पर दुर्भाग्य इस बात का है कि शिल्पकला को उद्योग का दर्जा नहीं दिला सकी सरकारों के कारण आज भी बस्तर के बेजोड़ शिल्प हाट-बाजारों में किलो के भाव में भी आसानी से मिल जाता है।
बस्तर में काष्ठ, लौह और बेलमेटल शिल्प सबसे अधिक प्रसिद्घ है। इनमें भी बेलमेटल की शिल्प की बात कई मायनों में निराली है। मुख्यतः बस्तर में निवास करने वाली घड़वा जाति के लोग इस शिल्पकला के निर्माता और संवाहक हैं। बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों में निवासरत विशेषकर मध्य बस्तर अंतर्गत कोंडागांव को प्रदेश की शिल्पनगरी का दर्जा भी बेलमेटल शिल्प के कारण ही मिला है। कोंडागांव, नारायणपुर के अलावा बस्तर जिले में इस कला में निपुण कई घड़वा परिवार हैं। हुनरमंद हाथों से मोम से विभिन्न आकृृतियों की रचना कर मिट्टी के पात्रों में या सांचों में ़पीतल मिश्रित धातुओं को गलाकर ढलाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। बेलमेटल शिल्प की पहचान व साख इसलिए और बढ़ जाती है क्योंकि कलाप्रेमियों के अनुसार पांच हजार साल पुरानी सिंधु घाटी सभ्यता के दौर में बनाई जाने वाली कलाकृतियों की प्रतिकृति बेलमेटल में नजर आती है। कोंडागांव निवासी स्वर्गीय जयदेव बघेल सहित कई ऐसे कलाकार रहे हैं और आज भी हैं जिन्होंने बेलमेटल को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया है। बस्तर के कई हाट-बाजारों में घडवा परिवार के लोग बेलमेटल को बेचने आते हैं। बाजार में तीन से चार सौ रूपए और शहर में यही शिल्पकार सात से आठ सौ रुपए किलो के भाव में बेलमेटल शिल्प को बेचते हैं। यही शिल्प हाटबाजारों से निकलकर जब व्यवसाईयों और दलालों के माध्यम से महानगरों के बड़े-बड़े शो-केस में बिकने के लिए पहुंचता है तो इसकी कीमत हजारों और लाखों में पहुंच जाती है। यही हाल बस्तर की काष्ठ कला की भी है। काष्ठ कला भी कम दामों में खरीदकर उंचे दामों पर शहरों में बिकने के लिए आसानी से पहुंचती है। राज्य गठन के बाद माना जा रहा था कि बस्तर के काष्ठ, लौह शिल्प और बेलमेटल या फिर अन्य शिल्पकलाओं के निर्माण में लगे कलाकारों की उन्नति और आर्थिक सुदृढ़ीकरण के लिए सरकारें काम करेंगी पर हकीकत यह है कि बहुत ज्यादा ठोस काम इस दिशा में नहीं हो पाया। कोंडागांव के बेलमेटल के राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त शिल्पी प्रदीप सागर बताते हैं कि सरकार से अपेक्षा थी कि बस्तर के शिल्प के लिए बाजार स्थापित करने और इसे उद्योग का दर्जा देनें पहल की जाएगी पर ऐसा कुछ हुआ नहीं जिसके कारण आज भी शिल्पियों की दशा और दिशा खराब ही है।
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