बिलासपुर(निप्र)। कानन पेंडारी जू की पहली बाघिन लावा की यादें कमरे में ही कैद होकर रह गई। जू प्रबंधन अब तक न तो उसकी हड्डियों का ढांचा तैयार कर सका और न ही उसकी खाल की ट्रॉफी बना सकी। बाघिन की मौत के बाद उसके शरीर के अंगों को इंटरपीटिशन सेंटर में पर्यटकों की प्रदर्शनी के लिए रखने की योजना थी, लेकिन जू प्रबंधन अपने इसे पूरा करने में सफल नहीं हो सका।
कानन पेंडारी के अस्तित्व में आने के बाद वन विभाग ने कांकेर के जंगल से खूंखार बाघिन ज्वाला को उसके शावक लावा के साथ यहां लाया था। उस समय जू में उन्हें रखने ढंग के पिंजरे भी नहीं थे। कमरे को केज का स्वरूप दिया गया। जू में बाघिन आने की खबर से शहर में हलचल मच गई। उन्हें देखने के लिए प्रतिदिन पर्यटकों की भीड़ पहुंचती थी। सालों तक पर्यटकों के बीच आकर्षक का केंद्र रहीच ज्वाला- लावा समय के साथ उम्रदराज होती गईं और आखिरकार 2008-09 में बीमारी के कारण एक के बाद एक दोनों की मौत हो गई। जब लावा की मौत हुई, तब यह निर्णय लिया गया कि वह जू की पहली बाघिन थी। इसलिए उसकी यादें हमेशा जू में ताजा रहने चाहिए। उसकी खाल की ट्रॉफी बनाकर जू में सुरक्षित स्थान पर रखने की योजना थी। पोस्टमार्टम के दौरान खाल को निकाल लिया गया। ट्रॉफी बनाने के लिए मशक्कत भी शुरू हुई, लेकिन विभागीय अड़चनों के कारण नहीं बन सकी। हड्डियों का ढांचा बनाकर भी रखने की योजना थी। इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए सालभर बाद 2010 में जमीन से लावा की हड्डियों को निकाला गया। खुदाई के दौरान सभी हड्डियां भी निकल गईं। तत्कालीन डीएफओ एसएसडी बड़गैया ने तत्कालीन रेंजर आलोक नाथ को ट्रॉफी व ढांचा तैयार के निर्देश भी दिए। ढांचा तैयार करने के लिए कानन पेंडारी जू डॉ. पीके चंदन को जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने चेहरे की सभी हड्डियां जोड़ भी ली, लेकिन इसके बाद उपयोग आने वाली सुविधाओं को उपलब्ध नहीं कराया गया। लिहाजा ऐसी स्थिति में हड्डियों को पेटियों में कैद कर जू के एक कमरे में रख दिया गया। इधर पर ट्रॉफी के लिए मुंबई के जिस वेटनरी कॉलेज से बात की गई, उन्होंने यहां आने से इनकार कर दिया। उन्होंने बाघिन की खाल मंगाई। खाल को मुंबई भेजने के लिए पीसीसीएफ वाइल्ड लाइफ से अनुमति भी मांगी गई, लेकिन उन्होंने इसकी सहमति नहीं दी। हालांकि इसके बाद भी कई बार प्रयास किया गया, लेकिन अनुमति नहीं मिली। विभागीय अड़चनों व जू प्रबंधन की ढील- ढाल रवैए के कारण अब तक न, तो ट्रॉफी बन पाई और न ही लावा का ढांचा तैयार हो पाया है।
इंटरपीटिशन सेंटर अधूरा
इंटरपीटिशन सेंटर को तैयार करने के लिए भी वन विभाग को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। 10 लाख की लागत से इसकी बिल्डिंग तो तैयार कर ली गई, लेकिन यहां साज- सज्जा व अन्य उपकरणों को रखने के लिए पुणे की जिस निजी कंपनी को चार लाख 20 हजार रुपए दिए गए थे। कंपनी ने इंटरपीटिशन सेंटर के भीतर का काम पूरा किया, लेकिन लावा की ट्रॉफी व ढांचे के बिना लाखों रुपए की लागत से बना यह सेंटर अधूरा ही नजर आता है।
ढांचा या ट्रॉफी तैयार करना जोखिम भरा है। इंटरपीटिशन सेंटर में ढांचे को रखा जाएगा तो उसके चोरी होने की आशंका है। इसके बाद भी ढांचा तैयार करने विशेषज्ञ की तलाश की जा रही है।
टीआर जायसवाल, प्रभारी अधिकारी कानन पेंडारी