चिराग उपाध्याय, बस्तर/ केशकाल। Chhattisgarh News वैसे तो देवी-देवताओं को इंसाफ के लिए जाना जाता है। अदालतों से लेकर आम जीवन में भी देवी-देवताओं की कसमें खाई जाती हैं और उन्हें इंसाफ का प्रतीक माना जाता है। इसके विपरीत छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में आदिवासी समुदाय के लोग देवी-देवताओं को भी सजा देते हैं। ये आदिवासी समुदाय सदियों से विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करते आ रहे हैं। यहां देवी-देवताओं और इंसान का रिश्ता अटूट आस्था और विश्वास पर टिका हुआ है। भक्त पूरी भक्ती से देवताओं की आस्था में रमा रहता है और उस पर प्रगाढ़ विश्वास रखता है। आस्था और विश्वास में कमी होने की स्थिति में उन्हीं देवी-देवताओं को दैवीय न्यायालय की प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ता है। इसके अलावा यहां सदियों से एक बेहद अनोखी प्रथा चली आ रही, जिसमें न्याय का दरबार लगता है। न्याय के इस दरबार में देवी-देवताओं को भी सजा मिलती है।
जिला मुख्यालय कोंडागांव से 60 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद सर्पिलाकार केशकाल घाट की वादियों में सदियों पुराना भंगाराम माई का दरबार है, जहां पर 9 सितंबर को विश्व प्रसिद्ध भादो जात्रा होगा। इसे देवी-देवताओं के न्यायालय के रूप में जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि भंगाराम की मान्यता के बिना क्षेत्र में स्थित नौ परगना में कोई भी देवी-देवता कार्य नहीं कर सकते। इस वर्ष में एक बार भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा को मंदिर प्रांगण में विशाल जातरा मेला आयोजित होगा। इस साल भी भंगाराम माई के दरबार में देवी-देवताओं का विशाल मेला आयोजित होगा। इसमें बड़ी तादात में श्रद्धालु अपने देवी-देवताओं के साथ पहुंचेंगे।
महिलाओं का प्रवेश वर्जित
आपको बता दें कि इस जात्रा में महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है। बस्तर परंपराओं का गढ है। यही पुरानी परंपरा अभी तक चली आ रही है। यहां आज तक जात्रा में महिला प्रवेश नहीं की है।
कठघरे में खड़े होते हैं देवी-देवता
आस्था व विश्वास के चलते जिन देवी-देवताओं की लोग उपासना करते है। अगर वे अपने कर्तव्य का निर्वहन न करें तो उन्हीं देवी-देवताओं को ग्रामीणों की शिकायत के आधार पर भंगाराम के मंदिर में सजा भी मिलती है। सुनवाई के दौरान देवी-देवता एक कठघरे में खड़े होते हैं। यहां भंगाराम न्यायाधीश के रूप में विराजमान होते हैं। माना जाता है कि सुनवाई के बाद यहां अपराधी को दंड और वादी को इंसाफ मिलता है।
न्यायाधीश के रूप में सुनाते हैं फैसला
गांव में होने वाली किसी प्रकार की व्याधि, परेशानी को दूर न कर पाने की स्थिति में गांव में स्थापित देवी-देवताओं को ही दोष माना जाता है। विदाई स्वरूप उक्त देवी-देवताओं के नाम से चिन्हित बकरी या मुर्गी को सोने-चांदी आदि के साथ लाट, बैरंग, डोली आदि को लेकर ग्रामीण साल में एक बार लगने वाले भंगाराम जातरा में पहुंचते हैं। यहां भंगाराम की उपस्थिति में कई गांवों से आए शैतान, देवी-देवताओं की एक-एक कर शिनाख्त करते हैं।
ऐसे दी जाती है देवी-देवताओं को सजा
इसके बाद अंगा, डोली, लाड, बैरंग आदि के साथ लाए गए चूजे, मुर्गी, बकरी, डांग आदि को खाईनुमा गहरे गड्ढे किनारे फेंका जाता है। ग्रामीण इसे कारागार कहते हैं। देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद मंदिर परिसर में अदालत लगती है। देवी-देवताओं पर लगने वाले आरोपों की गंभीरता से सुनवाई होती है। आरोपित पक्ष की ओर से दलील पेश करने सिरहा, पुजारी, गायता, माझी, पटेल आदि ग्राम के प्रमुख उपस्थित होते हैं। दोनों पक्षों की गंभीरता से सुनवाई के के बाद आरोप सिद्ध होने पर फैसला सुनाया जाता है। मंदिर में देवी-देवताओं को खुश करने के लिए बलि देने व भेंट चढ़ाने का भी विधान है।
मंदिर प्रांगण में स्थित है कारागार
भंगाराम बाबा के मंदिर परिसर में एक गड्ढे नुमा घाट बना हुआ है। ग्रामीण इसे कारागार कहते हैं। सजा के तौर पर दोष सिद्ध होने के पश्चात देवी-देवताओं के लाट, बैरंग, आंगा, डोली आदि को इसी गड्ढे में डाल दिया जाता है। मान्यता है कि दोषी पाए जाने पर इसी तरह से देवी-देवताओं को सजा दी जाती है।