Tadi in Jhabua: झाबुआ (नईदुनिया प्रतिनिधि)। झाबुआ से एकदम सटे पड़ोसी जिले धार के टांडा क्षेत्र में जहरीली ताड़ी पीने से तीन लोगों की मौत होने का दुखद हादसा कई तरह के संदेश दे रहा है। नशे के चक्कर में परिवार बर्बाद हो रहे हैं, जबकि तंत्र सिर्फ तमाशा देख रहा है। ताड़ी का सीजन मोटे तौर पर चार माह का रहता है, लेकिन जिला मुख्यालय झाबुआ में प्रशासन के ठीक नाक के नीचे 365 दिन ताड़ी बिकती है। जाहिर-सी बात है कि ताड़ी के नाम पर बिकने वाला सफेद रंग का यह सस्ता नशा किसी बड़े हादसे की आशंका पैदा कर रहा है। प्रशासन चाहे इससे बेखबर हो या अनदेखा कर रहा हो, लेकिन तय है कि गरीबों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है। पिछले कुछ सालों में ताड़ी का व्यापार तेजी से इस जिले में बढ़ा है।
2008 में जब झाबुआ और आलीराजपुर जिले अलग-अलग हुए तो ताड़ी का नाम भी झाबुआ जिले से दूर चला गया। वजह यह रही कि ताड़ी के पेड़ जिले में नहीं के बराबर हैं। केवल रंगपुरा में कुछ पेड़ हैं, मगर ज्यादा ताड़ी उससे हो नहीं पाती है। मुख्य रूप से ताड़ी आलीराजपुर जिले की ही पहचान है।
झाबुआ से ताड़ी के लिए न्यूनतम 20-25 किमी की दूरी तय करके रानापुर के आगे जाना पड़ता है, जबकि ताड़ी की मांग इधर बहुत अधिक है। समय के साथ उसकी चाहत बढ़ती जा रही है। इसी बिंदु ने एक नए व्यापार के दरवाजे खोल दिए। सीजन में कुछ लोग अलसुबह मोटर साइकिल पर बड़े-बड़े कैन टांगकर निकल पड़ते हैं और ताड़ी लाकर झाबुआ व आसपास के स्थानों पर बेचने लगे हैं। इससे उन्हें मुनाफा हो रहा है और नशा करने वाले अपनी ताड़ी पीने की चाहत भी आसानी से पूर्ण कर रहे हैं।
इस व्यापार में नकारात्मक बिंदु जुड़ने के बाद हर पल हादसे की संभावनाएं तेज होती दिख रही हैं। एक तरफ ज्यादा मुनाफा अर्जित करने के लिए आलीराजपुर जिले से ताड़ी लाकर उसमें मिलावट की जा रही है। दूसरी तरफ ताड़ी जैसा दिखने वाला सफेद रंग का एक नया नशा ही यहां तैयार होने लगा है। बताया जाता है कि उसमें कुछ नशे की गोलियां मिलाई जाती हैं।
जब सर्दी तेज होती है, तब दिसंबर के अंतिम दिनों से ताड़ी की आवक शुरू होती है। लगभग चार माह तक इसका सीजन रहता है। इसके बाद यह पेड़ से नहीं निकलती है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि झाबुआ में 365 दिन ही ताड़ी मिलती है। नशा करने वाले इसके लिए बस स्टैंड के पीछे जमे रहते हैं। बताया जाता है कि ताड़ी के नाम पर नकली नशीला पदार्थ तैयार किया जाता है। सस्ता व प्रभावी होने से नशेड़ी इसका उपयोग करते हैं।
ताड़ी ताड़ के पेड़ से निकलती है। 25-30 फीट लंबाई के ताड़ होते हैं, जो सीजन के दौरान रस देते हैं। इस रस को ही ताड़ी कहा जाता है। पेड़ के मालिक मटके बांध देते हैं, ताकि ताड़ी उसमें गिरती रहे। एक दिन में तीन समय पेड़ पर चढ़कर मटकी खाली की जाती है। जितनी सूर्य की तपन होती है, उस समय की ताड़ी उतनी ही कड़क होती है और जल्दी नशा देती है। बालसिंह निनामा कहते है कि एक ताड़ के पेड़ को तैयार होने में 70 साल तक का समय लग जाता है। फिर मिट्टी भी उसके अनुकूल होना चाहिए, तभी वह पनपता है। यही कारण है कि झाबुआ जिला ताड़ी से दूर हो गया, जबकि आलीराजपुर जिला इसका मुख्य गढ़ बन गया।
झाबुआ थाना प्रभारी सुरेंद्र सिंह ने बताया कि नशे का व्यापार करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाती है।