भोपाल। मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के साथ ही कई परंपराएं भी टूटने लगी हैं। विधानसभा अध्यक्ष आमतौर पर सत्तापक्ष का व्यक्ति सर्वसम्मति से चुना जाता रहा है, लेकिन भाजपा ने सात बार के विधायक विजय शाह को मैदान में उतारकर कांग्रेस को वॉकओवर न देने का निर्णय किया है।
इससे अब आधी सदी बाद यानी 52 साल बाद विधानसभा अध्यक्ष मतदान से चुना जाएगा। इसके पहले आखिरी बार अध्यक्ष पद के लिए मतदान 24 मार्च 1967 को हुआ था, जिसमें काशीप्रसाद पांडे जीते थे।
मप्र विधानसभा के इतिहास में सिर्फ दो मौके ही ऐसे आए, जब अध्यक्ष मतदान के जरिए चुना गया हो। सबसे पहले 27 मार्च 1962 को यह नौबत आई थी। तब भगवंतराव मंडलोई मुख्यमंत्री और काशीनाथ पांडे सभापति थे। कुंजीलाल दुबे के सामने रामेश्वर अग्निभोज चुनाव मैदान में थे।
दुबे को 187 और अग्निभोज को 91 वोट मिले थे। इसी तरह 24 मार्च 1967 को एक बार और अध्यक्ष पद के लिए मतदान के हालात बने। तब काशीप्रसाद पांडे और चंद्रप्रताप तिवारी के बीच मुकाबला था। इसमें पांडे को 172 और तिवारी को 117 मत मिले थे। इसके बाद मप्र विधानसभा में चुनाव की नौबत नहीं आई, लेकिन 15वीं विधानसभा में फिर हालात बने हैं।
कांग्रेस ने एनपी प्रजापति और भाजपा ने विजय शाह को मैदान में उतारा है। इस चुनाव का असर उपाध्यक्ष पद पर भी पड़ने के आसार बन गए हैं। कांग्रेस नेताओं ने साफ कर दिया है कि यदि भाजपा परंपरा का पालन नहीं कर रही है तो फिर उपाध्यक्ष पद किसके हिस्से में आएगा, इसका फैसला भी सदन में मतदान से ही होगा।
चार बार मतदान से चुना गया उपाध्यक्ष
प्रदेश में अभी तक चार बार उपाध्यक्ष का चयन मतदान से और एक बार प्रस्ताव अस्वीकृत होने से हो चुका है। पहली विधानसभा में 24 दिसंबर 1956 में विष्णु विनायक सरवटे और बृजलाल वर्मा के बीच मुकाबला हुआ था। इसमें सरवटे 140 मत लेकर उपाध्यक्ष चुने गए थे। इसके बाद 3 दिसंबर 1957 को अनंत सदाशिव पटवर्धन, 25 मार्च 1968 को रामकिशोर शुक्ल और 28 जुलाई 1975 को नारायण प्रसाद शुक्ला चुनाव के माध्यम से उपाध्यक्ष बने।
16 दिसंबर 1980 को एक बार फिर उपाध्यक्ष पद के लिए चुनाव कराने की नौबत आई। तब सुंदरलाल पटवा ने इस पद के लिए शीतला सहाय और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने रामकिशोर शुक्ल के नाम का प्रस्ताव रखा था। पटवा का प्रस्ताव ध्वनिमत से अस्वीकृत हुआ और शुक्ल उपाध्यक्ष बने। वर्ष 1984 से उपाध्यक्ष पद सर्वसम्मति से विपक्ष को मिलता रहा है, लेकिन इस बार चुनाव हुआ तो सत्ता पक्ष इस पद को लेकर इतिहास दोहरा सकता है।