फेज: 2
चुनाव तारीख: 26 अप्रैल 2024
धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक पर्यटन के दृष्टिकोण से टीकमगढ़ संसदीय क्षेत्र का देश के नक्शे पर महत्वपूर्ण स्थान है। यहां बुंदेलखंड की अयोध्या कही जाने वाली ओरछा नगरी के मंदिर में श्रीरामराजा सरकार की मूर्ति विराजमान है। ओरछा पुरातात्विक महत्व की नगरी भी है। यहां के महल, किले और छतरियां बेहद खूबसूरत और दर्शनीय हैं। राजनीतिक तौर पर यहां समीकरण बनते और बिगड़ते रहे हैं। वर्ष 1952 के पहले चुनाव में टीकमगढ़ लोकसभा सीट भी कई अन्य जिलों को शामिल करते हुए अस्तित्व में आई। अब तक इस सीट पर चार बार परिसीमन हो चुका है।
इस वजह से अधिकांश समय टीकमगढ़ खजुराहो लोकसभा सीट में शामिल रहा। वर्ष 1977 से वर्ष 2004 तक टीकमगढ़ जिले का अधिकांश हिस्सा खजुराहो सीट के साथ रहा। टीकमगढ़ संसदीय क्षेत्र का वर्तमान स्वरूप वर्ष 2009 के चुनाव से अस्तित्व में आया। खजुराहो अलग सीट बना दी गई। खास बात यह भी है कि अधिकांश समय यह सीट आरक्षित रही। वर्ष 2009 से यह एससी वर्ग के लिए आरक्षित है। वर्तमान में केंद्रीय मंत्री डा. वीरेंद्र कुमार खटीक यहां से तीसरी बार के सांसद हैं। जबकि 20 वर्ष से कांग्रेस यहां पर वनवास झेल रही है। वर्ष 2004 के चुनाव के बाद से ही यहां बाहरी प्रत्याशियों का कब्जा रहा।
वर्ष 2004 में जब यह खजुराहो संसदीय क्षेत्र का हिस्सा था तब दमोह के रहने वाले रामकृष्ण कुसमारिया ने भाजपा को यहां जीत दिलाई। पिछले 20 वर्षों से भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां यहां पर बाहरी प्रत्याशियों को मैदान में उतार रही है। हालांकि जीत भाजपा को ही मिल रही है। कांग्रेस अलग-अलग चेहरे वर्ष 2009 में सत्यव्रत चतुर्वेदी, 2014 में कमलेश वर्मा और वर्ष 2019 के चुनाव में किरण अहिरवार को यहां से उतार चुकी है, जबकि भाजपा बाहरी प्रत्याशी का तमगा लगा होने के बाद भी जीत रही है। डा. वीरेंद्र कुमार भी मूल रूप से सागर जिले से हैं।
उमा भारती ने चार बार लोकसभा में किया प्रतिनिधित्व
पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री भाजपा की दिग्गज नेता उमा भारती टीकमगढ़ की हैं। उनका जन्म यहां के डूंडा गांव में हुआ था। वे वर्ष 1989, 1991, 1996 और 1998 में चार बार यहां की सांसद रहीं। तब टीकमगढ़ अलग सीट नहीं बल्कि खजुराहो संसदीय क्षेत्र का हिस्सा था।
ओरछा के राजा ने सबसे पहले किए थे हस्ताक्षर
टीकमगढ़ निवासी 81 वर्षीय वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र अध्यर्वु के अनुसार वर्ष 1957 के पूर्व तक बुंदेलखंड में टीकमगढ़ का ओरछा राज्य राजशाही में प्रमुख स्थान रखता था। यहां के राजा को सर्वाधिक 1.20 लाख रुपये की राजनिधि अंग्रेजी शासकों से प्राप्त होती थी। बुंदेलखंड के राजाओं को सलाह देने और उन्हें नियंत्रित रखने के लिए नौगांव में अंग्रेजों का पालीटिकल एजेंट भी रहा करता था। जब देश में स्वराज का झंडा लहराने लगा तो स्थितियों को भांपकर ओरछा राज्य के तत्कालीन राजा वीरसिंह जूदेव ने सबसे पहले राज्य का समर्पण कर बुंदेलखंड में लोकप्रिय सरकार के गठन की घोषणा कर दी और यहां प्रजातांत्रिक व्यवस्था लागू हो गई। वे देश में पहले राजा थे जिन्होंने राज्य समर्पण पत्र पर हस्ताक्षर किए थे।
दो तिहाई आबादी ग्रामीण क्षेत्र की
टीकमगढ़ जिला जामनी, बेतवा और धसान की सहायक नदी के बीच बुंदेलखंड पठार पर है। 2011 की जनगणना के अनुसार यहां की 77.2 प्रतिशत आबादी ग्रामीण और 22.8 प्रतिशत आबादी शहरी क्षेत्र में रहती है। टीकमगढ़ की 23.61 प्रतिशत जनसंख्या एससी वर्ग और 4.5 प्रतिशत आबादी एसटी वर्ग के लोगों की है। टीकमगढ़ सीट में बुंदेलखंड अंचल का जो हिस्सा शामिल किया गया है। वह अब तक आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के लिए ही ज्यादा चर्चा में रहा है।
दो सदस्यीय व्यवस्था से हुई शुरुआत
वर्ष 1952 के संसदीय चुनाव में टीकमगढ़ जिले के चारों विधानसभा क्षेत्र, छतरपुर जिले के पांचों विधानसभा क्षेत्र, दतिया और पन्ना जिलों के तीन विधानसभा क्षेत्र को शामिल कर एक संसदीय क्षेत्र बनाया गया था। यहां से पहली बार दो सदस्यीय व्यवस्था के तहत सामान्य प्रत्याशी के रूप में रामसहाय तिवारी और एससी प्रत्याशी के रूप में मोतीलाल मालवीय सांसद निर्वाचित हुए थे। वर्ष 1952 में ही टीकमगढ़ में रहकर विंध्यवाणी और मधुकर पत्रिका का संपादन करने वाले तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के मित्र व सहयोगी पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को राज्यसभा के लिए भेजा गया था।
स्वतंत्रता संग्राम से नजदीकी रिश्ता
एडवोकेट कौशल किशोर भट्ट बताते हैं कि टीकमगढ़ संसदीय क्षेत्र में जतारा विधानसभा का चंदेरा एवं निवाड़ी विधानसभा क्षेत्र का ओरछा स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े स्थान हैं। ओरछा में चंद्रशेखर आजाद साधु के वेष में अज्ञातवास में रहे थे। यहां से उन्होंने झांसी सहित पूरे बुंदेलखंड के स्वतंत्रता संग्राम को दिशा देकर एकजुट किया। वहीं जतारा के चंदेरा में स्वतंत्रता संग्राम की अलख जलाई और यहां तत्कालीन शासन के खिलाफ बड़ा आंदोलन हुआ। जिसे चंदेरा सत्याग्रह कहा जाता है।